Friday, December 16, 2011

जानाँ के नाम… (नन्ही नज़्में)

मोनालिसा
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रात मुसव्विर
आँखें मूँदे सोच रही थी…
रंग कौन सा भरे
ख्वाब के कैनवास पर

तेरी खुशबू के नक्श
उकेरे थे फिर उसने…

"दा-विन्ची" ने भी
क्या जानाँ…,
कभी सोचा था तुमको ?
मोनालिसा फिर तेरी
परछाईं सी क्यों है !

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गुज़ारिश
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गुज़ारिश एक है तुम से ....

मेरी ख़ामोशी ने
जितने तराने छेड़े हैं
तुम पर ...
कभी महसूसना उन को
कभी उन पर थिरक लेना

मुकम्मल साज़ हो लेंगे
मेरे अलफ़ाज़ हो लेंगे
गुजारिश एक है तुमसे ...

मेरी पलकों के कोरों पर
जो आंसू सहमे रहते हैं
हंसी की ओट में हर पल...
कभी तुम भीगना उन में
कभी उन संग सिसक लेना

मेरी तकलीफ के लब पर
तबस्सुम खिलखिलाएगी
मोहब्बत खिलती जायेगी ..
गुजारिश एक है तुमसे ...

Tuesday, December 6, 2011

आज कल बे-ईमान बहुत हो गये हो तुम...

आज कल बे-ईमान
बहुत हो गये हो तुम.

वजूद अपना जो छोड़ा था
तुम्हारी निगहबानी में...
उसका कतरा भी कोई
अब नही मिलता मुझको
वो सब तुमने छुपा
कर रख लिया है
और इंतेहाँ ये
कि इक इल्ज़ाम
बेवफ़ाई का
मेरे सर कर दिया है

करार-ए-ज़िंदगी
के वो कुछ सफ़हे
जिन्हे चश्मदीद रखा था
ये सब कुछ सौंपते तुमको
तुम्हारे हक़ में
गवाही देने लगे हैं

मुक़दमा ख़ास है ना ये
अदालत ये तुम्हारी है ,
मुद्दई तुम, तुम्हीं मुन्सिफ
वकालत भी तुम्हारी है.

लो मैं कबूलता हूँ
जुर्म अपना...!
सुनो, अब फ़ैसले में
देर मत करो जानाँ ...
अपने आगोश में
उम्र-क़ैद की सज़ा दे दो!

Wednesday, November 23, 2011

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया ...

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया !

मगर फिर भी क्यों तेरी आहटें
मेरे जेहन-ओ-दिल में खनक रहीं ...
तेरे जिस्म में थीं जो खुशबुएँ
मेरे बाम-ओ-दर पे महक रहीं ...

क्यों तेरे ख़याल का अंजुमन
है फलक का नूर बना हुआ
वो तबस्सुमों का हिजाब है
मेरे सोच-ओ-सच पे तना हुआ

मेरी ज़िन्दगी का हर एक गुल
क्यों है तेरे नाम खिला हुआ ...
मेरी सांस का हर तार क्यों
तेरी धडकनों से मिला हुआ ...

मेरे हमसफ़र जो हुआ है ये
कि तू दिख रहा है ख़फ़ा-ख़फ़ा
गर सच है ये तो मुझे बता
कि तू कब है मुझसे जुदा हुआ ...

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया ...
मगर मुझसे कब है जुदा हुआ .

Sunday, September 25, 2011

इष्टा को समर्पित...

वह विजय में है मेरी और हार में भी
शीर्ष पे और मध्य में, आधार में भी
मनसा-वाचा-कर्मणा में वो समाहित
वह पृथन में भी मेरे, अभिसार में भी

आरोहण-अवसान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...

जेठ में है, पूस में है, फाग में वो
विधि रचित हर कण में है, हर भाग में वो
वृक्ष की हर पात के कलरव में गुंजित
विहग के झुण्डों के हर इक राग में वो

रात्रि-रज़ हर बूँद उसके आचमन में
हर नया विहान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...

मैं भ्रमित हूँ,मुझ में या परिवेश में है
मैं हूँ उसके या वो मेरे वेश में है
मन की हर संवेदना है जनित उससे
वो मेरे अनुराग में है , द्वेष में है

अश्रु और मुस्कान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...

Thursday, September 8, 2011

कहो क्या नाम दूँ तुमको !

कहो क्या नाम दूँ तुमको !

सहर में तुम,शफक़ में तुम
परिंदों की चहक में तुम,
परस्तिस में, इबादत में
सलीके में, नफ़ासत में

लिखावट में, ज़बानी में
मेरी हर इक कहानी में....
तसव्वुर बस तुम्हारा है ।

मेरी साँसें, मेरी धड़कन
ये मेरी रूह का पैराहन
तेरे सदके मेरी जाना
ये इंतेज़ाम सारा है...

मेरी शोहरत, मेरी चाहत
मेरी रुसवाइयां तुम से
मेरी नफ़रत, मेरी तोहमत
मेरी अच्छाईयाँ तुम से

मैं क्या ईनाम दूँ तुमको !
मैं क्या इल्ज़ाम दूँ तुमको !

कहो क्या नाम दूँ तुमको ?

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तुम्हारी याद भर से नज़्म…
रक्स करती है काग़ज पर…
तसव्वुर से तुम्हारे,
शेर सब परवाज़ भरते हैं…

तेरे आगोश में सिमटूँ
तो मैं गुलज़ार हो जाऊँ…!

Thursday, August 11, 2011

दर्द की जाने शख्सियत क्या है …!

दर्द की जाने शख्सियत क्या है !

किसी के दिल में मोम जैसा है
छलक पड़ता है रूह जलते ही
कभी जलता है उम्र भर को ये
कोई परवाना संग मिलते ही

कभी रिसता है पानियों कि तरह
जेहन की दीवारों को नमी देकर
कभी ताबीर ये मुहब्बत की
किसी की चाह को जमीं दे कर

कभी पत्थर सा सख्त होता है
दिल की धड़कन को सर्द करता हुआ
कभी मखमल के उजले फाहे सा
किसी नफ़रत के जख्म भरता हुआ

किसी की याद के धुएँ जैसा
कभी अम्बर में घुलता जाता है
कभी पारे सा मनचला हो कर
किसी भी सिम्त बढ़ता जाता है ...

दर्द की जाने शख्सियत क्या है !

Thursday, July 7, 2011

ये इंतेज़ार जाएगा कब तक ...

तर्क-ए-ताल्लुक निभाएगा कब तक
वो मुझे आज़माएगा कब तक

हद कोई होगी बे-नियाज़ी की
हमसे दामन बचाएगा कब तक

उम्र दहलीज़ पे शमाँ कर दी
वो भी देखें ना आएगा कब तक

ये तश्ना-लब, ये भूख-लाचारी
खुदा ये दिन दिखाएगा कब तक

तीरगी जुगनूओं के बस की नही
जाने सूरज वो लाएगा कब तक

दिल गया होश गया साँसें भी
ये इंतेज़ार जाएगा कब तक

Friday, July 1, 2011

यूँ सीने से न लगा मुझको....

ए मेरे दोस्त
यूँ सीने से न लगा मुझको ...

दर्द कोई
फिर न छलक जाए
मेरे जख्मों से ...
बाँध कर जब्त कर
रखा है जिसे
कोई आंसू न ढलक आये
मेरी नज्मों से ...

ए मेरे दोस्त ......
यूँ सीने से न लगा मुझको !

मेरी आँखों में
रौशनी नजर आई जो तुम्हे
वो मेरी सुलगी हुई
धड़कन के सिवा कुछ भी नहीं
ख़ाक हो जाए न
ये रेशमी दामन तेरा
मेरी मोहब्बत का अब
हासिल है सिला कुछ भी नहीं

ए मेरे दोस्त ......
यूँ सीने से न लगा मुझको

मैं तो टूटा हुआ
एक तारा हूँ
उफक के दरिया में
डूबता सा कहीं
तू मुझको बाँधने की
न तमन्ना कर
मेरे संग तू भी बिखर
जाए कहीं ...

ए मेरे दोस्त ......
यूँ सीने से न लगा मुझको

Thursday, June 9, 2011

या मैं मरघट सा हो बैठा...

मैं अब भी निपट अकेले में
हर रोज ढूंढता हूँ उत्तर
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा

जब हमने चाहा था हर क्षण
एक स्नेहिल मौन से भर जाए
उस चुप की मुस्काती धुन पर
कोई गीत प्रणय का छिड़ जाए

लेकिन अब तो ना जाने क्यों
है चीख भरी सन्नाटों में
जो आलिंगन करने को थे
सिमटे हैं स्वप्न कपाटों में

निज-आहूति से अर्जित था
एक पल में पुण्य वो खो बैठा
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा

विश्वास रचित निज-नौका में
दिग-पाल बने थे संवेदन
हम प्रेम मगन थे विचर रहे
यह जीवन सरिता मनभावन

वो छिद्र कौन सा था जो उसे
शंका-सिंधु में डूबो बैठा
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा

Sunday, May 22, 2011

तुम्हारा नाम आया था ...

मैं जब भी टूट कर बिखरा ,
मुकद्दर देख कर सिहरा ,
मुझे ढाढस बंधाने को ..
ग़मों में भी हंसाने को ..
तुम्हारा नाम आया था ...

खिजाँ की बदलियाँ छायीं ,
उजाले जब थे परछाईं ,
दिया बन जगमगाने को...
मुझे रस्ता दिखाने को ...
तुम्हारा नाम आया था ...

दिखी तकदीर की वहशत,
छिनी जब हर मेरी नेमत ,
दुआ में मुझको लाने को ...
ख़ुदा बन कर बचाने को ...
तुम्हारा नाम आया था .....

मगर उस वक़्त-ए-आख़िर जब

उखरती जाती थीं साँसें ,
बुझी जाती थीं ये आँखें ,
मेरी धड़कन बढ़ाने को ...
हमें जिंदा दिखाने को ...
तुम्हारा नाम न आया ....

हमने कर ली जो थी ठानी,
वो पहली बार मनमानी ,
मेरे सजदा-ए-आख़िर पर...
मेरे होठों की जुम्बिश पर ...

मुझे रुखसत कराने को ,
हमें मिट्टी दिलाने को ,
तुम्हारा नाम आया था ...

तुम्हारा नाम आया था ...!

Sunday, May 15, 2011

मैं कैसे लूँ स्वीकार...

प्रिय !मैं कैसे लूँ स्वीकार,
तुम्हारे स्नेह का उपहार ?
मेरा पथ है अश्रु विगलित,
शूल - कंकर, कष्ट-मिश्रित

वेदना ही पूंजी अर्जित
मेरा शोक का व्यापार...
प्रिय !मैं कैसे लूँ स्वीकार,
तुम्हारे स्नेह का उपहार...?

प्रीत का ना भान मुझको
स्नेह का ना ज्ञान मुझको
सृष्टि में हर पग मिले हैं
पीड़ा के प्रतिमान मुझको

कैसे तेरे रंग रंगूँ…
मेरा स्याह है संसार ।
प्रिय ! मैं कैसे लूँ स्वीकार,
तुम्हारे स्नेह का उपहार.?

विधि-रंक सा हूँ जन्मना मैं
मुस्कान की हूँ वर्जना मैं
एक फीका रंग मेरा…
सौ रंग तेरी अल्पना में

मैं कदाचित् दे ना पाऊँ
तेरे स्वप्न को आधार...
प्रिय ! मैं कैसे लूँ स्वीकार,
तुम्हारे स्नेह का उपहार ?

Tuesday, April 26, 2011

बारिश ...

कर गई आज दिल-ओ-जाँ को मेरे तर बारिश ,
हुई थी ख्वाब की तेरे जो रात भर बारिश ..

वो रात भर मेरे कानों में घोलती मिसरी
ले के आई थी मुझ तक तेरी खबर बारिश ...

यूँ ही एक दुसरे में घुलते रहे हम दोनों ...
फकत बूँदें थीं वो, या तेरी नजर , बारिश ...

नजर में घुल के मेरी रूह तक उतर जाना
सीख के आई है तुझसे ही ये हुनर बारिश ...

दिल की डाली को उम्र भर ये हरा रखेगी ...
जो तेरे दीद की हुई है, मुक्तसर बारिश ...

*शफक का वक़्त है, रवि के साथ है पूनम*
मोहब्बत बरस रही है, तू ठहर बारिश !

*शफ़क -- गोधुलि बेला की लालिमा… जब सूरज और चाँद दोनों ही दिख जाते हैं !

Tuesday, April 12, 2011

आवारा नींदें ..

कितनी रातों से
आवारा घूमती हैं
मेरी नींदें ..

यूँ तो हर रोज़
तुम्हारी याद की ईंटें
अपने एहसास की जमीन पर
बिछाता हूँ ....
तेरे रुखसार के नक़्शे
की शिकन पा कर
मुद्दतों
आशियाँ बनाता हूँ ..

फकत इक ख्वाब की जुम्बिश
तेरी जुदाई की जानाँ ...
ये सब कुछ तोड़ जाती है
और मेरी नींद को
हर शब्
खुले छत छोड़ जाती है ...

न कोई मरमरी घर दो
तुम अपने साथ का जानाँ
तो इक अंगीठी तबस्सुम की
जला दो जेहन में मेरे

हरारत जिसकी ले के मैं
हर इक शब् जागता बैठूँ
इस बंजारे को अब तो कोई
छत मयस्सर हो ..

कितनी रातों से
आवारा घूमती हैं
मेरी नींदें ..!

Friday, March 25, 2011

हर रिश्ते में फनकारी है ...

बस चेहरों की अय्यारी है
हर रिश्ते में फनकारी है

बाज़ार सजा है निस्बत का
और बिकने की तैयारी है

सूरज का भरोसा देता है
सब जुगनू की मक्कारी है

है फूट के रोया सारी शब
जी चाँद का अब तक भारी है

मेरे दिल की चुगली करते हैं
इन लफ्जों में गद्दारी है

एक मुद्दत बाद चखा उनको
मेरी ग़ज़लों की इफ्तारी है .

Sunday, March 13, 2011

कुछ वित्तीय खुराफ़ातें … :)

ये जालिम ज़माना मुझ प्रेमी-मन को जबरन वित्तीय गणित सिखाने की कोशिश में है कि हम कुछ इन्सान हो जायें ! और हम ठहरे देसी कुत्ते की खालिस दुम …… "इको-नामिक्स" में भी "प्रेमो-नामिक्स" पढ़ने लगे और जो कुछ पढ़े वो आप सब के सामने रख रहे हैं ………… झेलिये ... :P

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इन्फ्लेशन

मैं ढेरों खर्चता हूँ
अपने ख्वाब के सिक्के
तब कहीं जा कर थोड़ा सा
"तुम" खरीद पाता हूँ

इन्फ्लेशन* बहुत बढ़ गयी है
तुम्हारे तसव्वुर के देश में.

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घाटा

मैने तो खर्च डाली है
सारी मुहब्बत तुम्हारे कोटे की
तुमने ही जाने क्यों भरा नही
अपने हिस्से का उलफती-राजस्व

कहो तो कैसे कम होगा भला
इस बरस का ये मोहब्बतीय घाटा.

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कमीशन

मैं हर रोज
चाँद से खरीदता हूँ
तुम्हारे ख्वाब के शेयर...
बेईमान रात
हर रोज काट लेती है
कमीशन उस से...

"सेबी"* सूरज से
ज़रा कर दो ना शिकायत उसकी !




इन्फ्लेशन* --inflation -- मुद्रास्फीति
सेबी -- SEBI -- Securities & Exchange Board of India.

Tuesday, March 8, 2011

ख़्वाबों का उड़न खटोला था ...

उस रोज़ फलक हिंडोला था
इक ख्वाब देर तक डोला था

तब चाँद उठा था दरिया से
जब शाम ने सूरज घोला था

कुछ बादल थे सौगात मिले
और कुछ तारों को मोला था

फिर उसके दिल पे दस्तक कि
और उसने झरोखा खोला था

दिल दोनों छिटक कर उछले थे
और हमने उफक टटोला था

लम्हों को थाम दिया उसने
ये वक़्त भी कितना भोला था

पर आँख खुली तो गायब था
ख़्वाबों का उड़न खटोला था


ये किस्सा सा है,एक ख्वाब का,जो हक़ीकत के बेहद करीब का है पर फिर भी एक ख्वाब कि ही तरह झूठा :)। Confused !!
मैं भी Confused हूँ कि इसे ग़जल कहूँ या नज़्म……! खैर जो भी है…झेलिये

Wednesday, March 2, 2011

खेल-खेल में …

रस्सा-कशी
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

आसमान के प्ले ग्राउंड में
हम-तुम पहुंचे
चाँद से बाँधा सूरज
ज्या की डोरी से

तुमने सिरा
चाँद का थामा
मैंने सूरज थाम लिया

अब रस्सा-कशी का खेल
हुआ करता है हरदम
जो तुमने खींचा
सांझ ढली
जो मैंने खींचा
भोर हुई ।



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स्ट्राईकर

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लोग रहते हैं
गोटियों की मानिंद..
ज़िन्दगी की बिसात
बिखरी पड़ी है ...
कितनी ही बार
छू के गुजरे हैं
अपनी मंजिल का
रास्ता पा कर ...

मैं
सबके साथ बढता जाता हूँ
फिर तनहा लौट आता हूँ
कैरम के स्ट्राईकर की तरह ..

सबके हमसफ़र का
कोई अपना सफ़र नहीं होता !

Sunday, February 20, 2011

मुझको तू कर दे ...

समा ले खुद में मुझे और मुझको तू कर दे
रगों में दर्द जमा है, उसे लहू कर दे ।

मेरी हयात के लम्हों पे नाम उसका हो
मेरी वफ़ा को खुदा बस मेरा जुनू कर दे ।

वो गर उठे तो झुका दे फलक परस्तिश में
नज़र मिले तो निगाहों को बावजू कर दे* ।

खुले हैं जख्म कई , रिस रहा है पैराहन
है कोई इल्म जो निस्बत को भी रफू कर दे ?

मैं सारी उम्र तेरी ख्वाहिशों के नाम हुआ
तू एक बार फकत , मेरी आरज़ू कर दे !


* के निशान वाला मिसरा "मिसरा-ए-सानी" है जिसकी तरह (रदीफ़ और कफ़िये पर) ये ग़जलनुमा चीज आप सब के सामने जलवाफ़रोश हुई है :)

Sunday, February 13, 2011

हे मौनव्रती कुछ तो बोलो......!

हो दम साधे यूँ मौन खड़े,
क्यों हो यूँ मृतप्राय पड़े,
चुप्पी तोड़ो, मुंह का खोलो,
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो......

युग परिवर्तित करने को
क्रांति की, राह थामनी होती है,
कुछ करने को, करने की
मन में, चाह थामनी होती है,
कल्पना को दो उड़ान,
मन के दरवाजों को खोलो,
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो....!

पीड़ा-प्रताड़ना के भय से ,
तुम चुप्पी कब तक साधोगे,
अन्याय व शोषण सहने की
बोलो क्या सीमा बाँधोगे,
अब तो उठ कर विद्रोह करो,
अपनी शक्ति को तोलो,
हे मौनव्रती अब तो बोलो...!

साक्षी हैं इतिहास की जब भी
मौन बनी चिंगारी है,
पापों की चिता है धधक उठी,
हुई नतमस्तक सृष्टि सारी है,
जागो, जग का नेतृत्व करो,
बढ़ व्योम-सितारों को छू लो,
हे मौनव्रती अब तो बोलो....... !

Monday, February 7, 2011

दो साइंटिफ़िक नज़्में … :)

ज़िन्दगी का त्रिभुज
~~~~~~~~~~~~~

बचपन में
कई बार पढ़ा था
भुजाएं त्रिभुज की
अपने अनुपात बदल कर
कोणों के मान
बदल देतीं हैं अक्सर

उम्र मुद्दत से खड़ी है
वक़्त के त्रिभुज में
हर पल ख़ुशी और ग़म
के अनुपात गिनती हुई

और मैं
कब से बैठा
हिसाब लगा रहा हूँ जाने ..
मगर ज़िन्दगी
हर बार "थीटा" की तरह
मायने बदल जाती है !



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धरती का कोर
~~~~~~~~~~~

मेरे जेहन की धरती में
कुछ पत्थर से एहसासों
के बहुत नीचे
तुम्हारी याद का गर्म लावा
चक्कर लगाता रहता है हरदम

और उस से निकलने वाली तरंगें
अपने महफूज़ आगोश में
समेटे रहती हैं मुझको ...
जहाँ ग़म का कोई सूरज
कभी जला नहीं पता है मुझको

बहुत सकते में हूँ जानाँ
जबसे सुना है ये
कि किसी दिन
धरती का कोर
रुक जायेगा जम कर
और ये इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कवच
टूटेगा… बिखर जाएगा !

मैं जानता हूँ यूँ
कि मुहब्बत
किसी आइन्स्टीन या डार्विन का
सिद्धांत नहीं ..
मगर सच्ची बताओ जानाँ
कहीं तुम भी तो नहीं ................................. !

[एक जियो-फिज़िक्स के जर्नल में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ था कुछ वक़्त पहले की धरती का कोर [क्रोड़] जो लगातार घूमता रहता है और जिस से उत्पन्न इलेक्ट्रो-मॅग्नेटिक फील्ड धरती की रक्षा करता है विध्वंसक सौर-तरगों [अल्ट्रा-वायलेट और इन्फ़्रा-रेड रेज] से, उसकी गति धीमी हो रही है और कुछ सौ सालों में ये रुक जाएगा और ये फील्ड ख़त्म हो जाएगी । इस विषय पर एक फ़िल्म भी बन चुकी है।....चूँकि फिज़िक्स मेरा पसंदीदा सब्जेक्ट रहा है और वो जर्नल मेरे हाथ आया कुछ वक़्त पहले तो कुछ कहने की कोशिश की है इस पर.... झेलिए ! :P :P]

Thursday, February 3, 2011

फिर से उसी नाम से पुकार मुझे...

कि भिगो दे ये मोहब्बत का आब'शार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे!

भोर को पैकर-ए-माहताब मे ढलता देखूं
जिस्म का मोम तेरी लौ से पिघलता देखूं

तुझमे में खो कर ही आएगा अब करार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !

अपने मसले में जमाना नही मुनसिफ़ होगा
अपना अंजाम भी औरों से मुक्तलिफ़ होगा

इन हसीं ख्वाबों का होने दे ऐतबार मुझे
मेरी जान फिर से उसी नाम से पुकार मुझे!

अपना अफ़साना रहती तारीख़ तलक गूंजेगा
ये ज़मीन गाएगी धुन मे, ये फलक गूंजेगा

क्यों डराते हैं और फानी से किरदार तुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !

लोग उठाते हैं गर निगाह तो उठाने दे
तू मुझको-ख़ुदको मुहब्बत में डूब जाने दे

पूरा करने दे अब उल्फ़त का शाहकार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !


ये नज़्म दरअसल एक दूसरी नज़्म को पढते हुए जन्मी थी… तो इसे उस नज़्म की पूरक मान सकते हैं। पहली नज़्म "साँझ " की ब्लॉग पर है…!

Sunday, January 30, 2011

जुड़वां मुन्तजिर आँखें…

ज़िन्दगी की सड़क पर
ख्वाबों ने, रफ़्तार जो पकड़ी
न जाने हमकदम कितने
मैं पीछे छोड़ आया हूँ

किसी से उम्र का रिश्ता
किसी से सांस का बंधन
किसी से जन्मों की कसमें
मैं सबको तोड़ आया हूँ

न जाने कितने लम्हों ने
मुझे आवाज़ दे रोका ...
कि शायद वक़्त से भी अब
मैं चेहरा मोड़ आया हूँ

मगर फिर भी न जाने क्यों
ये वापिस लौटते से हैं
कि जैसे डोर उल्फत की
कोई क़दमों में डाले है ..

वहीँ दरवाजे पर टिक कर
वो जुड़वां मुन्तजिर आँखें
अज़ल से मेरे आने का
सुनहरा ख्वाब पाले हैं .

Tuesday, January 25, 2011

विदा होती बहन …

विदा होती बहन ...........
क्यों , विदा होती बहन ?

दिल के अन्दर अब कौन भला फिर झांकेगा ,
मेरे अश्कों में अपना हिस्सा बांटेगा ,
झुलसे अंतस को कौन भला फिर सींचेगा ,
भर गोदी में फिर कौन प्रेम से भींचेगा,

अम्मा की लाडो , बाबा की आँखों का तारा ....
घर की बगिया में करती थी मधुर -मधुर गुंजन ...


विदा होती बहन ...........
क्यों , विदा होती बहन ?

मेरी खुशियों में अब कौन यहाँ मुस्कायेगा ,
पीड़ा में फिर हँसना कौन सिखायेगा ,
मेरी शरारतों पर माँ -बाबा के आगे ,
बन ढाल भला फिर मुझको कौन बचायेगा ,

अब कहाँ मिलेगी मुझे .....
स्नेह की छाँव सघन ....

विदा होती बहन ...........
क्यों , विदा होती बहन ?

आंसू का गुब्बार नयन से फूट रहा ,
दिल ही दिल में दिल भी है कुछ टूट रहा ,
कैसी अलबेली रीत भला यह दुनिया की ,
बचपन , सखियाँ , घर का आँगन छूट रहा ,

आबाद चली करने को ......
फिर एक और चमन .......

विदा होती बहन ...........
क्यों , विदा होती बहन ?


[चार साल पहले सिसका था मन और मेरी निजी डायरी के गीले सफ़हों के आँचल में जा छुपी थी पीड़ा…… पर आज सलिल सर की पोस्ट ने इसे बाहर निकाला है। वहाँ उनकी पोस्ट पर बिना कुछ कहे चला आया क्योंकि मन भर आया था । जो वहाँ कहना था वो यहाँ कहा है ]

Friday, January 21, 2011

मैं शब्द बेचता हूँ साहब... !

जी हाँ ...
मैं शब्द बेचता हूँ साहब... !

चौबीसों घंटे
खुली रहती है मेरी दूकान ...
जब मन चाहे आइये ..
और अपने काम के शब्द
ले जाइए.. !

जैसी जरूरत
वैसे ही रेट हैं..
और कुछ सौदे
छूट समेत हैं..!

नेताओं का
विशेष स्वागत है !
बस अगले महीने
चुनाव की आहट है !

गुणगान, स्तुति
या फिर तालियाँ ...
या विरोधियों को देनी हों
ब्रांडेड गालियाँ...

नहीं,घबराइए नहीं !
ये काम नहीं
कानून के विरुद्ध है ..
क्योंकि यहाँ मिलावट भी
सौ फीसदी शुद्ध है ..

पत्रकारों को यहाँ
मिलती बड़ी छूट है
दस सच्ची खबरों पर फ्री
सौ सफ़ेद झूठ है ...

ब्रेकिंग
और एक्सक्लूसिव खबरें
यहाँ उपलब्ध हैं
कई वेरायटी में…
और TRP की गारंटी है
आज की सोसाइटी में ।

चलिए आप के लिए ,
सिर्फ आपके लिए
एक दाम लगा दूंगा
थोक ग्राहक से
कोई फायदा क्या लूँगा ...

बस इन्ही शब्दों के
हेर-फेर से
चलती अपनी दूकान है
और यकीन जानिये
समाज में अपना
बहुत सम्मान है ...

क्योंकि अब
समाज के घोड़े पर
अंगूठाछाप टट्टू सवार है
और इन्ही के पीछे करबद्ध खड़ा
ये आज का साहित्यकार है ....!!

Sunday, January 16, 2011

अपने अपने मायने …

कितनी बातों के लगे हैं, जाने कितने मायने
जितने सर हैं,उतनी सोचें,सबके उतने मायने॥

हमने तो बातें कही थीं,इक फकत मकसद के साथ
अपने मकसद से जा निकले, अपने अपने मायने ॥

अपने अपने आइनों में सब दिखें हैं पाक साफ़ ..
अपनी ही करतूत हैं, ये सारे फितने मायने ॥

हमने मसलों पर सुना था एक चुप्पी का इलाज़
पर लफ़्ज़ों के उतने न थे,चुप के जितने मायने ॥

अपने ख़्वाबों में कबूतर,और उनके ख्वाब, बाज़
देखना है रखते हैं अब किसके सपने मायने !!

Wednesday, January 12, 2011

चोर शीशे [कुछ नन्ही नज़्में]


ये शीशे चोर हैं सारे !

ये सारी नाजुकी जो इनकी
परतों ने समेटी है
तुम्हारे लम्स से ली हैं ... !

तुम्हारे सादा दिल सा
इन्होने अपना भेष डाला है ..!

वो जो तहज़ीब है इनको
"जो जैसा है दिखा देना "
तेरी नज़रों से सीखा है..

जो तुम न होते
तो आइनों का क्या होता !

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जिंदगी
की व्हिस्की
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मेरी आँखों में
डालो न ,
तुम अपने ख्वाब
का टुकडा ...
कि जिंदगी
फिर छलक जाए मुझ से ...
पैमाने में रखी
व्हिस्की की तरह
जब उसमे बर्फ डलती हैं ...।

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हामिला
उम्मीद
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जल्द ही नज़्म एक पैदा होगी
जल्द ही अफ़साना किलकेगा
दिल के आँगन में…
तेरे विसाल की उम्मीद
हामिला सी नज़र आती है।

हामिला* -- गर्भवती (Pregnant)
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