Sunday, November 28, 2010

पवन री ..संदेसा ले जा !!

एक गीत लिखने की कोशिश की है... आप सब के समक्ष रख रहा हूँ ... स्नेह और सुझाव दीजियेगा :
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पवन री !
संदेसा ले जा ........!!

मोरे पी तो..... गए रे बिदेसवा
पाती लिख नहीं पाते ...
तू समझे गति ...मुझ विरहन की
ले चल मुझको उड़ा के

मोहे पीयू का दरस दे जा
पवन री ...... !
संदेसा ले जा ........!!

सूनी गलियन पर...बाट मैं जोहूँ ...
जग-जग दृग पथराये ...
मन मृग बन कर भटके बन-बन
कस्तूरी ना पाए ...

मोहे पी की लगन दे जा ..
पवन री ...... !
संदेसा ले जा ........!!

हिय सुलगे सुन... लाकड़ी जैसे
तू जो हिलोरे खाए ...
मन वीणा की तान बिलखती
प्रियतम तक ना जाए ...

मोहे पी से मिलन दे जा
पवन री ...... !
संदेसा ले जा ........!!

Thursday, November 25, 2010

तुम जीवन उनमें भर देना ..

मैं साँसें वारूँ तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

जीवन उपवन मृतप्राय अभी
हुए व्यर्थ मेरे उपाय सभी
मैं लाख जतन कर के हारा
मन-पुष्प नहीं खिल पाए कभी

मैं झुलसा मन सौपूं तुमको
तुम सिंचन उसका कर देना
मैं साँसें वारूँ
तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

मानस पे जम गई धूल प्रिये
अब झूठ दिखे स्थूल प्रिये
अब लोभ मोह लालच मद में
भूला जीवन का मूल प्रिये

मैं अपने भाव तुम्हे दे दूं
तुम पावन उनको कर देना..
मैं साँसें वारूँ
तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

है द्वेष भरा यह जीवन अब
बस आशाओं का क्रंदन अब
सुलग सुलग स्वाहा होता
बेमतलब तन का चन्दन अब

इस जग की प्रेम समिधा में
तुम अर्पण इसको कर देना
मैं साँसें वारूँ
तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

Thursday, November 11, 2010

यक्ष - प्रश्न काल के-2




तमाम साथियों/सुधी जनों की सलाह के बावजूद पिछ्ली दो रचनाओं की ही अगली कड़ी रख रहा हूँ आपके समक्ष, क्योंकि अगर कोइ अन्य कविता डाली तो श्रृंखला अधूरी रह जायेगी…… सो गुजारिश है कि कम से कम एक मर्तबा और झेलिए इस खुराफ़ात को…… और इस पर अपने विचार भी रखिये।

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हे कोशलेश !

कहे जाते हो तुम मापदंड
उत्तम-अनुकरणीय आर्य
आचरण के ...
किन्तु कुछ शंकाएँ हैं
अंतर में ...
उत्तर दे पाओगे ??

क्या मर्यादित था
वध बाली का ...
जिस पर किया था घात
परोक्ष तुमने ...
मित्र की सहायता की
ओट में ??

क्या मानते हो
अनुकरण योग्य
परित्याग मैथिली का ...
एक अनर्गल प्रलाप पर
जिसकी सत्यता के साक्षी
स्वयं तुम थे ??

कभी खड़े हो पाओगे
समक्ष उर्मिला के ... ?
जिसने त्याग दिया
अपना भाग्य
तुम्हारा भाग्य
सँवारने को ...

यदि निभानी थी मित्रता
करते स्वस्थ युद्ध
मित्र के अधिकार हेतु ...

निर्भीक घोषित करते साक्ष्य
जानकी की पवित्रता के
तब प्रकट होता
पुरुषार्थ तुम्हारा ...

सर्वथा रहते कृतज्ञ
अनुज के ...
जिसे त्याग का प्रतिदान
दिया था तुमने ...

क्षमा करना नृपश्रेष्ठ !
किन्तु कदाचित लेना पड़े
नव-जन्म तुमको
मर्यादा-पुरुषोत्तम होने को !

Tuesday, November 9, 2010

यक्ष - प्रश्न काल के-1


सुनो पार्थ !

है साहस तुम में ??
उठाओ गांडीव अपना
तान दो प्रत्यंचा
और सिद्ध कर दो स्वयं को
धनुर्धर सर्वश्रेष्ठ ...!

किन्तु रुको ...
क्या एकलव्य समक्ष
ठहर पाओगे ?
क्या वाणी कर पाओगे
अवरुद्ध वाचाल श्वान की ?
क्या दे पाओगे
आहूति रक्तिम ,
गुरु-यज्ञ की ज्वाला में ?

यदि दे भी पाओ ये,
तो क्या किसी याचक को
दे दोगे अपनी साधना सम्पूर्ण ?
क्या पाल पाओगे प्रण अपना
मूल्य पे अपने प्राणों के
कर्ण की भाँति ??

यद्यपि,
तुम धनी हो धनुष के
और सदा-हरित तूणीर तुम्हारा !
निस्संदेह विजयी भी ...
शायद इसलिए इतिहास पर
अधिकार तुम्हारा !

किन्तु हे धनुर्धर ,
विजय मेरी दृष्टि में
कदापि साधन नहीं
सर्वश्रेष्टता के मानक का !

Wednesday, November 3, 2010

वीरता का इतिहास






वीर सदा हंस कर पलता हैं ,
असि पर और शरों पर,
जिसकी गाथा खेला करती ,
सदा जगत अधरों पर

वीरत्व सदा जाना जाता हैं ,
अपने तेज प्रखर से ...
साहस रखता जो तोड़ सितारे
ले आने का अम्बर से

सच हैं , वीरता ही रख सकती
हैं विजय की चाह ...
पर हैं सच्चा वीर सदा
जो चले धर्म की राह

वही विजय हैं पूज्य की जिसमे
निहित भुजा का बल हो ...
नहीं कोई भी कपट कोई
लेश मात्र भी छल हो

कहते हैं की वीर पार्थ सम
हुआ कोई जग में ...
पर क्या था कोई मुकाबला
उसमे और एकलव्य में ?

क्या ठहर सकता था कोई
कर्ण समक्ष समर में ..
महाकाल ही स्वयं बसा था
जिस महाबली के शर में

द्रोण-भीष्म सम महारथी भी
मारे गए कपट से ...
वरन काल भी जीत पाता क्या
इन महावीर उद्भट से !

माना कि था भीम सुशोभित
सौ हाथियों के बल से ...
पर कुरुराज पर उसकी विजय भी
क्या नहीं हुई थी छल से

नीति कहती हैं गदा -प्रहार
सदा होता कटि के ऊपर ...
किन्तु भीम ने गदा हनी थी
दुर्योधन की जंघा पर !

ह्रदय सन्न कर देती थी
दुर्योधन की चीत्कार ...
हा ! धर्मराज के भ्राता ने ही
दिया धर्म को मार ... !

लज्जित थी मानवता,
पांचाली का
जब हरण हुआ था चीर ...
कर बांधे बैठे रह गए थे
अर्जुन भीम सम वीर

पर सच हैं यह भी कि वीरता
फिर निर्वस्त्र हुई थी ...
धर्म -युद्ध में कर्ण की हत्या
जब निः -शस्त्र हुई थी !

इतना ही नहीं पूर्व में भी
मर्यादा का हुआ हरण था ...
मर्यादा-पुरूषोत्तम ने जब कपट से
जय का किया वरण था

महावीर बालि जिसको
जीत सका कोई बल से ...
राम ने छिपकर संहार किया था
उसका भी तो छल से

कुटिलता से होती हैं दूषित
शूरता साफ़ - सुवर्ण
वीरत्व के अधिकारी हैं सच्चे
अभिमन्यु और कर्ण

इनके इंगित ओर ही विधि की
रेख मुडी जाती हैं ...
ऐसे पुत्र ही पा जननी की
छाती जुडी जाती हैं


शब्दार्थ : असि - तलवार, कटि - कमर, इंगित - निर्देशित !

Tuesday, November 2, 2010

कुछ दोहे गण/गन तन्त्र के ……




(1)
गणतंत्र भला अब देश में कैसे इज्जत पाए !
जब "गन"तंत्र से चुना हुआ,नेता कुर्सी पे आये!!
(2)
गणतंत्र के वृक्ष का, निज लाभ बना है मूल !
बस वही मूल तो फूल है,बाकी सब त्रिशूल !!
(3)
बैंक बैलेंस उन्नति आहे,सब उन्नति को मूल !
निज उन्नति पर गौर करो,राष्ट्र पे डालो धूल !!
(4)
सारे दिन हैं उलट-फेर के,माल कमाना काम !
गणतंत्र दिवस अवकाश का,सारी मिटे थकान !!
(5)
लूट लिया धन देश का,बाँध पोटली गाँठ !
लोकतांत्रिक देश में,लोग ही भटके बाट !!
(6)
भ्रष्ट लोकमत देख के,गणतंत्र पकड़ता कान !
गन ही हैं गणतंत्र में, अब कुर्सी कि जान !!
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