Monday, March 26, 2012

नयनन छवि, पी की बसे मोरे रामा ...

नयनन छवि, पी की बसे मोरे रामा ...
धरम कहे, मति हरि संग जोडूँ 
सदगति, सतफल  पाऊं ....
करम कहे बस जगतहीं उलझूं    ..
व्यर्थ न मन भरमाऊं ..

मन जोगी सुध कोई न ले जोई
पी परे कोई न कामा ssss...
नयनन छवि, पी की बसे मोरे रामा ...!

दिन बीते पथ इक टुक  तकते
निशि बीते सपनाहीं ......
काल -पहर सब बीतत जैहें ...
पीऊ पर आवत नाही ....

हरि विनती मुख कौन करूँ जिस
मुख पीऊ आठों यामाssss ....
नयनन छवि, पी की बसे मोरे रामा !!

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आस्था -अनास्था ,सफलता और संघर्ष के निरंतर  द्वन्द से गुजरते हुए बस एक ही संबल होता है मेरा .... यह गीत उसी दिव्य और पवित्र विश्वास को समर्पित है.

Friday, January 27, 2012

कैसे कह दूं कि उसी शख्स से नफरत है मुझे !

कैसे कह दूं
कि उसी शख्स से
नफरत है मुझे !

वही जो शख्स
मेरे ख्वाब तोड़ देता है,
वही उन ख्वाबों के
होने का पर सबब भी है...
मेरी हयात के
पुर्जे बिखेरने वाला,
मेरी साँसों को सजाने का
वो ही ढब भी है...

मैं चाहता नहीं पर
जिसकी जरूरत है मुझे !
कैसे कह दूं
कि उसी शख्स से
नफरत है मुझे !


मेरी शिकस्त में है
और सफ़र के हौसलों में भी...
ख़ुशी में जीत की
पैरों के आबलों में भी...

वही ज़मीन है
पैरों के नीचे,
छत भी है.... ,
वही मिटाने की
जुम्बिश-ओ-हरारत भी है...

मगर तन्हाई में भी
उसकी ही आदत है मुझे
कैसे कह दूं
कि उसी शख्स से
नफरत है मुझे !

Thursday, January 12, 2012

आखिरी ख़त....




रक्षा सेवाओं का एक चलन है.... जब सिपाही जंग पर जाता है तो final assault से पहले हर सिपाही अपने प्रिय जनों के नाम एक चिट्ठी लिख छोड़ता है... इसे "लास्ट लैटर " के नाम से जाना जाता है। यदि सिपाही जंग में वीरगति को प्राप्त होता है तो उस चिट्ठी को पोस्ट कर दिया जाता है। मेरे पिता जी एक लम्बे अरसे तक सेना का हिस्सा रहे हैं तो मैंने उस माहौल और मनोदशा को बहुत करीब से समझा है... . एक आखिरी ख़त लिखने की कोशिश की है मैंने भी ... जानाँ के नाम !!

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सुनो ...
जरा ठहरो अभी जानाँ ..

कि साँसों में अभी अपनी
जरा तेज़ाब भर लूं मैं ..
जो बिखरे हैं जन्मते ही
वही कुछ ख्वाब भर लूं मैं ...

जब कि मुल्क में सारे ,
लहू से लाल हो आँगन
हर एक रुखसार भीगा हो
बिलखता हो हर इक दामन

तो कैसे , बस तुम्ही सोचो ..
मैं सोचूं अपनी चाहत की
इतनी खुद -गर्ज़ तो नहीं
तासीर अपनी निस्बत की

अभी ठहरो ....
कि साँसों में बहुत
अंगार बाकी है ...
अभी तो ज़िन्दगी से मौत का
व्यापार बाकी है

अभी देखो फिजाँ में
हर जगह पर मौत बिखरी है
तेरी तस्वीर मेरी जाँ,
जेहन में और निखरी है

यहाँ गर जानाँ, मेरी जाँ
वतन के काम आ जाये...
तुम्हारे जिस्म के हिस्से
लिबास मातमी आये

यकीं रखना
इन अश्कों ने
कई गुलशन खिलाएं हैं ...
अकेली तुम जो सिसकी हो
हजारों मुस्कुराएँ हैं

सुनो ,
अब आखिरी तुमसे
मुझे जो बात कहनी है

गर मेरे बिना तुम भी
कहीं पर चैन न पाना
किसी दिन तुम भी मुझ सी ही
वतन के काम आ जाना ...

कि जिस दिन आखिरी,
इस मुल्क से
गद्दार जाएगा
हमारा प्यार उस दिन
खुल के सब में खिलखिलायेगा ...

सुनो ...
जरा ठहरो अभी जानाँ ...

कि साँसों में अभी अपनी
जरा तेज़ाब भर लूं मैं ..!
जो बिखरे हैं जन्मते ही
वही कुछ ख्वाब भर लूं मैं ...

Friday, December 16, 2011

जानाँ के नाम… (नन्ही नज़्में)

मोनालिसा
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रात मुसव्विर
आँखें मूँदे सोच रही थी…
रंग कौन सा भरे
ख्वाब के कैनवास पर

तेरी खुशबू के नक्श
उकेरे थे फिर उसने…

"दा-विन्ची" ने भी
क्या जानाँ…,
कभी सोचा था तुमको ?
मोनालिसा फिर तेरी
परछाईं सी क्यों है !

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गुज़ारिश
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गुज़ारिश एक है तुम से ....

मेरी ख़ामोशी ने
जितने तराने छेड़े हैं
तुम पर ...
कभी महसूसना उन को
कभी उन पर थिरक लेना

मुकम्मल साज़ हो लेंगे
मेरे अलफ़ाज़ हो लेंगे
गुजारिश एक है तुमसे ...

मेरी पलकों के कोरों पर
जो आंसू सहमे रहते हैं
हंसी की ओट में हर पल...
कभी तुम भीगना उन में
कभी उन संग सिसक लेना

मेरी तकलीफ के लब पर
तबस्सुम खिलखिलाएगी
मोहब्बत खिलती जायेगी ..
गुजारिश एक है तुमसे ...

Tuesday, December 6, 2011

आज कल बे-ईमान बहुत हो गये हो तुम...

आज कल बे-ईमान
बहुत हो गये हो तुम.

वजूद अपना जो छोड़ा था
तुम्हारी निगहबानी में...
उसका कतरा भी कोई
अब नही मिलता मुझको
वो सब तुमने छुपा
कर रख लिया है
और इंतेहाँ ये
कि इक इल्ज़ाम
बेवफ़ाई का
मेरे सर कर दिया है

करार-ए-ज़िंदगी
के वो कुछ सफ़हे
जिन्हे चश्मदीद रखा था
ये सब कुछ सौंपते तुमको
तुम्हारे हक़ में
गवाही देने लगे हैं

मुक़दमा ख़ास है ना ये
अदालत ये तुम्हारी है ,
मुद्दई तुम, तुम्हीं मुन्सिफ
वकालत भी तुम्हारी है.

लो मैं कबूलता हूँ
जुर्म अपना...!
सुनो, अब फ़ैसले में
देर मत करो जानाँ ...
अपने आगोश में
उम्र-क़ैद की सज़ा दे दो!

Wednesday, November 23, 2011

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया ...

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया !

मगर फिर भी क्यों तेरी आहटें
मेरे जेहन-ओ-दिल में खनक रहीं ...
तेरे जिस्म में थीं जो खुशबुएँ
मेरे बाम-ओ-दर पे महक रहीं ...

क्यों तेरे ख़याल का अंजुमन
है फलक का नूर बना हुआ
वो तबस्सुमों का हिजाब है
मेरे सोच-ओ-सच पे तना हुआ

मेरी ज़िन्दगी का हर एक गुल
क्यों है तेरे नाम खिला हुआ ...
मेरी सांस का हर तार क्यों
तेरी धडकनों से मिला हुआ ...

मेरे हमसफ़र जो हुआ है ये
कि तू दिख रहा है ख़फ़ा-ख़फ़ा
गर सच है ये तो मुझे बता
कि तू कब है मुझसे जुदा हुआ ...

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया ...
मगर मुझसे कब है जुदा हुआ .

Sunday, September 25, 2011

इष्टा को समर्पित...

वह विजय में है मेरी और हार में भी
शीर्ष पे और मध्य में, आधार में भी
मनसा-वाचा-कर्मणा में वो समाहित
वह पृथन में भी मेरे, अभिसार में भी

आरोहण-अवसान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...

जेठ में है, पूस में है, फाग में वो
विधि रचित हर कण में है, हर भाग में वो
वृक्ष की हर पात के कलरव में गुंजित
विहग के झुण्डों के हर इक राग में वो

रात्रि-रज़ हर बूँद उसके आचमन में
हर नया विहान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...

मैं भ्रमित हूँ,मुझ में या परिवेश में है
मैं हूँ उसके या वो मेरे वेश में है
मन की हर संवेदना है जनित उससे
वो मेरे अनुराग में है , द्वेष में है

अश्रु और मुस्कान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...
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