Sunday, October 17, 2010

तुम अगर दो साथ...


तुम अगर दो साथ...
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ. ...

मैं भटक रहा हूँ विस्मित ...
विस्मृति के पथ पे किंचित ...
मार्ग हैं अवरुद्ध आगे .. ..
लक्ष्य भी है अब तिरोहित ...

तुम से पा कर राह फिर से ..
मैं नए सोपान गढ़ लूँ. .....
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !

माथे की हैं रेख काली ...
और भाग्य का लेख खाली
संपदा इस कृपणता की
मैंने वर्षों है संभाली

प्रीत की स्याही से फिर मैं
विधि का नया विधान गढ़ लूँ. ..
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !

मैं राग से भटका हुआ सुर ,
लय बस छुट जाने को आतुर ...
गान मेरा छीन न ले ..
ये समय की धुन है निष्ठुर

श्वास की हर लय पे तेरे
मैं कई अनुतान गढ़ लूँ. ..
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !

10 comments:

monali said...

Beautiful poem wid lovely vocabulary...

vandana gupta said...

विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (18/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

Dr Xitija Singh said...

bahut khoobsurat kavita ravi ji ... shubhkaamnaien

Anonymous said...

:)

रचना दीक्षित said...

बहुत खूब कहा है विजयदशमी की शुभकामनाएं !

Ravi Shankar said...

@ monali ji...

shurkiya aapka ! sneh banaye rakhiyega !

@ Vandana ji...

bahut aabhaar aapka jo aapne is kachchi lekhani ko is layak samjha !

@ Kshitija ji...

bahut dhanyavaad aapka !

@ Buddy...
:) Stay blessed !

@rachna ji..

bahut shurkiya !

Aur aap sabko vijaydashmi ki dheron subhkaamnyaen ! Keep smiling all !

राजेश उत्‍साही said...

किसी का साथ देना भी पड़ता है।

Ravi Shankar said...

क्षमा कीजियेगा राजेश जी… किन्तु आपकी टिप्पणी का परिपेक्ष्य नहीं समझ पाया ! यदि स्पष्ट करें तो कृपा होगी।

संजय भास्‍कर said...

wah kya baat hai..........
bahut sunder bhav piroye hai ise rachanaa me aapne...........
Aabhar

Ravi Shankar said...

sanjay ji...


bahut shukriya aapka !

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