यूँ खुशफहमी न पाला कर
कोई सच नंगा न उछाला कर
ईमान न जीने देगा तुझे
दुनिया में गड़बड़ झाला कर
बस अपना धंधा चमका तू
जनहित के काम को टाला कर
तनख्वाह रखे भूखा सबको
हर माह नया घोटाला कर
हुई ख़त्म गुलामी गोरों की
जो भी धंधा कर काला कर
इक झूठा चेहरा गढ़ हर पल
सच के सांचे में ढाला कर
निज-स्वार्थायन नित बांचा कर
हाथन नोटों की माला कर
जयचंद पाल ले घर में और
हर भगत को देश निकाला कर
एक तेरी मोहब्बत ने बनाया हैं खुदा मुझको,मैं रोज खल्क करता हूँ नया संसार ग़ज़ल में..
Saturday, October 30, 2010
Friday, October 29, 2010
मोहब्बत की जलन बाकी है ..

आँख में रंज है,चेहरे पे शिकन बाकी है ..
अए जिंदगी, तेरे लहजे में थकन बाकी है ...
कटे हैं पर और कफस में हैं परिंदा भी ..
मगर निगाह में मंजिल की लगन बाकी है
हुआ ही क्या जो ये भीगी रही थी कल शब् भर
तुम्हारी आँख में मोहब्बत की जलन बाकी है ..
लाख जख्म को मरहम दिया हैं काँटों ने ..
पर अब भी पाँव में फूलों की चुभन बाकी है ..
अपनी निस्बत में सौदा तो था बराबर का ..
हमारे जिस्म पे अब तेरा कफ़न बाकी है ...
Tuesday, October 26, 2010
प्रिज्म और ब्लैक होल

शक्सियत मेरी दुनिया में
किसी सूरज कि मानिंद थी
कि जिसमें आग थी केवल
दहकती,रूह झुलसाती...
तुम आई जो मेरे पास
कोई प्रिज्म हो जैसे ..
मेरे अंतस को सहलाया
तो कितने रंग बिखरे हैं
गुलों को बैगनी रंगत
लहर को नील बख्शा है
फलक है आसमानी सा
धनक धरती पे रखा है
फुलाई पीली सरसों का
हवाओं में घुला है रंग
वो रंगत केसरी सी है
जो बैठी है शफक के संग
हया ने जो चुना है रंग
वो लाली मुझसे बिखरी है
तेरी ही सादगी में घुल
ये रंगत मेरी निखरी है
मगर अब भी मेरी जाना
है दिल में आरज़ू बाकी
कि तुम न प्रिज्म सी होकर
उफक कि ब्लैक होल होती ...
मेरा रौशन हर एक कतरा
फकत तेरे लिए होता ..
मैं बस तुझसे गुजरता
और तेरी आगोश में सोता
Saturday, October 23, 2010
अमर -बेल
Wednesday, October 20, 2010
तेरे ख़याल की खिड़की

दिल के तख्ते पे धड़कन
ठक-ठक सी बजती है ..
किसी बढ़ई के
हथौडे की मानिंद ..
दर्द की कील से
यादों के खांचे कसता ..
वक़्त रन्दे सा
बरसों के जिस्म
छीलता रहता है अक्सर ..
और लम्हों के बुरादे
बिखड़े पड़े है देखो ...
जाने किस रोज
मुकम्मल होगी
तेरे ख़याल की खिड़की
मैं जिसको
जिंदगी की दीवार में जड़ कर
तेरे तसव्वुर की रौशनी
पीने का रास्ता निकालूँगा...!
Tuesday, October 19, 2010
दिल के देश में अब के बरस सूखा पड़ा है न ...!
Sunday, October 17, 2010
तुम अगर दो साथ...
तुम अगर दो साथ...
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ. ...
मैं भटक रहा हूँ विस्मित ...
विस्मृति के पथ पे किंचित ...
मार्ग हैं अवरुद्ध आगे .. ..
लक्ष्य भी है अब तिरोहित ...
तुम से पा कर राह फिर से ..
मैं नए सोपान गढ़ लूँ. .....
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !
माथे की हैं रेख काली ...
और भाग्य का लेख खाली
संपदा इस कृपणता की
मैंने वर्षों है संभाली
प्रीत की स्याही से फिर मैं
विधि का नया विधान गढ़ लूँ. ..
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !
मैं राग से भटका हुआ सुर ,
लय बस छुट जाने को आतुर ...
गान मेरा छीन न ले ..
ये समय की धुन है निष्ठुर
श्वास की हर लय पे तेरे
मैं कई अनुतान गढ़ लूँ. ..
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !
Thursday, October 14, 2010
मेरा नाम मुकम्मल हो जाए ...
आगाज़ जो हो तेरे हाथों से, अंजाम मुकम्मल हो जाए ,
मेरा नाम जुड़े तेरी हस्ती से, मेरा नाम मुकम्मल हो जाए ...
दुनियावालों ने यूँ मुझपर , तोहमत तो हजारों रखी हैं ..
एक तू जो दीवाना कह दे ,इल्जाम मुकम्मल हो जाए ...
ये फूल ,धनक , माहताब , घटा , सब हाल अधूरा कहते हैं
तू छू ले अपनी आँखों से , पैगाम मुकम्मल हो जाए ...
मैं दिन भर भटका करता हूँ , लम्हों की सूनी बस्ती में ..
जो गुजरे तेरी यादों में , वो शाम मुकम्मल हो जाए ...
दे दुनिया मुझको दाद भले ,अंदाज़-ए-सुखन हैं खूब 'रवि '..
एक तेरा तबस्सुम और मेरा , ईनाम मुकम्मल हो जाए ...
मेरा नाम जुड़े तेरी हस्ती से, मेरा नाम मुकम्मल हो जाए ...
दुनियावालों ने यूँ मुझपर , तोहमत तो हजारों रखी हैं ..
एक तू जो दीवाना कह दे ,इल्जाम मुकम्मल हो जाए ...
ये फूल ,धनक , माहताब , घटा , सब हाल अधूरा कहते हैं
तू छू ले अपनी आँखों से , पैगाम मुकम्मल हो जाए ...
मैं दिन भर भटका करता हूँ , लम्हों की सूनी बस्ती में ..
जो गुजरे तेरी यादों में , वो शाम मुकम्मल हो जाए ...
दे दुनिया मुझको दाद भले ,अंदाज़-ए-सुखन हैं खूब 'रवि '..
एक तेरा तबस्सुम और मेरा , ईनाम मुकम्मल हो जाए ...
Tuesday, October 12, 2010
हथियार कलम बन जायेगी ..

देनी है फिर आज चुनौती,
सत्ता के गलियारों को
गूंगा कर देना है फिर से
धर्म जात के नारों को ..
हो समान अधिकार, बराबर
कद हो सबकी हस्ती का ..
एक कौम हो,एक ही मजहब,
केवल वतनपरस्ती का ..
जिस दिन ऐसे संकल्पों की हूंकार कलम बन जायेगी ..
उस दिन जन-जन के हाथों का हथियार कलम बन जायेगी ..
आज सभी धृधराष्ट्र बने हैं
इस सत्ता के धंधे पर
सर लोकतन्त्र का झूल रहा है
भ्रष्टाचार के फ़न्दे पर्…
संसद है फिर द्युत-क्रीड़ा
गृह सी सजी हुई ..
है आन वतन की
आज दांव पर लगी हुई ..
जिस दिन अर्जुन के धन्वा की टंकार कलम बन जायेगी
उस दिन जन-जन के हाथों का हथियार कलम बन जायेगी..
जिन्दा लोगों की बस्ती में
फिर मरघट सा सन्नाटा है…
सच कहना तो है दूर, ह्रदय
सच सुनने से थर्राता है ..
जीते रहना कुछ भी सह कर,
क्या जीवन का आधार यही ..
जब तक बाकी हो सांस हमें
अन्याय न हो स्वीकार कभी ..
जिस दिन अश्रु के बदले रक्त की धार कलम बन जायेगी ..
उस दिन जन-जन के हाथों का हथियार कलम बन जायेगी ..
Saturday, October 9, 2010
सुनो न जानाँ ....

सुनो न जानाँ ....
गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....
दिल की हर धड़कन से फिर
एक तान सुरीली आती थी ...
ये पुरवाई धीमी धीमी
मद्धम से साज बजाती थी ...
और वक़्त के हाथों की
तबले पर संगत होती थी ...
शरमाये इस मौसम की
फिर शफक सी रंगत होती थी ...
इन साँसों के अवरोहों में
कई राग पुराने जगते थे ....
और रात की आँखों में
कुछ ख्वाब सुहाने पकते थे ...
पर देखो न ये साज यूँही ..
बरसों से रूठे बैठे हैं ...
ये लफ्ज़ मेरे , अब तेरे बिन
सरगम से छूटे बैठे हैं ...
तुम आओ न और रख लो इन्हें
अपने होठों की पंखुरी पर
की गीत मेरे फिर राधा से
थिरकें कान्हा की बांसुरी पर ...
फिर दे दो इन्हें परवाज़ वही
ये पाँव फलक पर रखते थे ...
सुनो न जानाँ ....गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....
गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....
दिल की हर धड़कन से फिर
एक तान सुरीली आती थी ...
ये पुरवाई धीमी धीमी
मद्धम से साज बजाती थी ...
और वक़्त के हाथों की
तबले पर संगत होती थी ...
शरमाये इस मौसम की
फिर शफक सी रंगत होती थी ...
इन साँसों के अवरोहों में
कई राग पुराने जगते थे ....
और रात की आँखों में
कुछ ख्वाब सुहाने पकते थे ...
पर देखो न ये साज यूँही ..
बरसों से रूठे बैठे हैं ...
ये लफ्ज़ मेरे , अब तेरे बिन
सरगम से छूटे बैठे हैं ...
तुम आओ न और रख लो इन्हें
अपने होठों की पंखुरी पर
की गीत मेरे फिर राधा से
थिरकें कान्हा की बांसुरी पर ...
फिर दे दो इन्हें परवाज़ वही
ये पाँव फलक पर रखते थे ...
सुनो न जानाँ ....गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....
Friday, October 8, 2010
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....

जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....
जाडों में फुटपाथों पर
जब रात सिसकती रहती हो
फटे चिथरों में लिपटी
जब भूख बिलखती रहती हो
जब तन में क्षुधा हो रोटी की
तब चाँद प्रिया दिखे कैसे
जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....
जब चौराहों पर ये बचपन
भट्ठी -चूल्हे में सिंकता हो
जब अबलाओं का वस्त्र-वरण
रुपयों -पैसों में बिकता हो
तब अश्रु -बीज से उपजा जो
चुम्बन के मोल बिके कैसे
जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....
घुटती मर्माहत चीखों से
जब राष्ट्र दग्ध हो जलता हो
जब लहू शिराओं में नख -शिख
हो कर उद्विग्न उबलता हो
तब जग -पीड़ा के सम्मुख फिर
भला निज की चाह टिके कैसे
जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....
Sunday, October 3, 2010
उस रात तुम्हारे आने का ...

उस रात
तुम्हारे आने का
इमकान हुआ था जब मुझको ....
मैंने झट से उफक की छत पर
टांगा था एक चाँद नया ,
और बादल के एक फाहे से
फिर आसमान को साफ़ किया ....
उस रोज सितारों की ऊपर ..
एक झिलमिल चादर टाँगी थी ,
और पुरवाई से चुपके से
भीनी सी खुशबू मांगी थी ..
कि आओगे और भर लोगे
तुम मुझको अपनी बांहों में
और शब् सारी शब् थिरकेगी ...
पाजेब पहन के पांवों में ...
अठ -खेली होगी अपनी ..
जगते ख्वाबों की बस्ती में ...
दूर फलक के पार चलेंगे
पूनम की सुनहरी कश्ती में ....
देखो न हर रात यूँ ही ..
तेरी आमद की ख्वाहिश में
मैं घर को सजाता रहता हूँ
और दिल को दिलासा देता हूँ ...
तुम आओगे ...बस चल ही दिए ..
रस्ते में हो ...अब पहुंचोगे ...
उस रात
तुम्हारे आने का
इमकान हुआ था जब मुझको ....
Saturday, October 2, 2010
चाय की पत्ती
Friday, October 1, 2010
भाव कहाँ से लाऊं मैं

तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ..
तुम मेरे विचारों की मेधा
तुम शब्दों का अनुकूल चयन
तुम सब दृश्यों का परिपेक्ष्य
तुम ही हो कवि का अंतर्मन ...
तुम बिन अपनी रचना के
निहितार्थ कहाँ से पाऊं मैं
तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ..
तुम सब रागों की सरगम हो
तुम साँसों का आरोहन
तुम नृत्यों की भाव -भंगिमा
तुम्ही कलाएं मनभावन ...
तुम न हो तो तबले पर
पद -क्षेप कहाँ बैठाऊं मैं
तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ..
तुम रंगों की परिभाषा
तुम चित्रों का संदर्श प्रिये ..
तुम जड़ छाया को चेतन करती
तूलिका का स्पर्श प्रिये ...
तुम बिन जीवन के चित्र -पटल पर
जड़ होके न रह जाऊं मैं ...
तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ....
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