Tuesday, November 9, 2010

यक्ष - प्रश्न काल के-1


सुनो पार्थ !

है साहस तुम में ??
उठाओ गांडीव अपना
तान दो प्रत्यंचा
और सिद्ध कर दो स्वयं को
धनुर्धर सर्वश्रेष्ठ ...!

किन्तु रुको ...
क्या एकलव्य समक्ष
ठहर पाओगे ?
क्या वाणी कर पाओगे
अवरुद्ध वाचाल श्वान की ?
क्या दे पाओगे
आहूति रक्तिम ,
गुरु-यज्ञ की ज्वाला में ?

यदि दे भी पाओ ये,
तो क्या किसी याचक को
दे दोगे अपनी साधना सम्पूर्ण ?
क्या पाल पाओगे प्रण अपना
मूल्य पे अपने प्राणों के
कर्ण की भाँति ??

यद्यपि,
तुम धनी हो धनुष के
और सदा-हरित तूणीर तुम्हारा !
निस्संदेह विजयी भी ...
शायद इसलिए इतिहास पर
अधिकार तुम्हारा !

किन्तु हे धनुर्धर ,
विजय मेरी दृष्टि में
कदापि साधन नहीं
सर्वश्रेष्टता के मानक का !

19 comments:

vandana gupta said...

यदि दे भी पाओ ये,
तो क्या किसी याचक को
दे दोगे अपनी साधना सम्पूर्ण ?
क्या पाल पाओगे प्रण अपना
मूल्य पे अपने प्राणों के
कर्ण की भाँति ??

यद्यपि,
तुम धनी हो धनुष के
और सदा-हरित तूणीर तुम्हारा !
निस्संदेह विजयी भी ...
शायद इसलिए इतिहास पर
अधिकार तुम्हारा !

किन्तु हे धनुर्धर ,
विजय मेरी दृष्टि में
कदापि साधन नहीं
सर्वश्रेष्टता के मानक का !

कविता अपने आप मे श्रेष्ठ है मगर अनेक प्रश्न भी छोड रही है जैसे विजय श्रेष्ठता का मानक नही …………सही कहा मगर जहाँ धरम और अधर्म की बात हो तो वहाँ जरूर मायने रखती है कम से कम धर्म के दृष्टिकोण से तो…………………वैसे भी कहा जाता है ना जो जीता वो ही सिकन्दर्…………इतिहास उसी का गवाह बनता है जो सही होता है फिर चाहे विजय कैसे ही प्राप्त की हो य वो उसके योग्य था या नही मगर उसके साथ धर्म का संबल तो था ही ना और उस से ज्यादा की चाह बेमानी है…………ये मेरा नज़रिया है।

Ravi Shankar said...

क्षमा चाहता हूँ,वन्दना जी किन्तु पूछ्ना चाहूँगा कि किस धर्म की बात कर रही हैं आप ? क्या उस क्षत्रिय धर्म की जिसमें एक स्त्री को वस्तु की भांति पहले तो जुए में दाँव पर लगा दिया…… या उस धर्म की जिसकी दुहायी दे कर द्रोण,भीष्म,कर्ण्… आदि वीरों की भीरुता से हत्या की गयी…… युद्ध में धर्म का कोइ स्थान नहीं होता,वन्दना जी। युद्ध आरंभ से अन्त तक अधर्म ही होता है… जहाँ धर्म नाम की चीज़ बस विजय होती है। महाभारत मेरी दृष्टि में कोइ धर्म-युद्ध नहीं था वह सिर्फ़ सत्ता लोलुपता और लालसा का नग्न प्रदर्शन था।

आपने देखा होगा कि कविता का शीर्षक "यक्ष - प्रश्न काल के" है जहाँ काल अर्थात समय अपनी बात कह रहा है। मेरा आशय किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाने का नहीं है बस एक कोशिश है इतिहास को एक निष्पक्ष नज़रिये से देखने की।

आपने अपने विचार रखे कविता समृद्ध हुई ! धन्यवाद !

Avinash Chandra said...

हे रश्मिरथी! विजयी अवश्य नहीं थे, किन्तु तुम परम यशस्वी हो. नीव के पत्थर उत्ताल-ध्वनि में अब भी गान करते हैं तुम्हारे अमोघ तेज का.

उस्ताद जी said...

5/10

सुन्दर व उत्कृष्ट कविता है किन्तु रचना अपने कथ्य में अपूर्ण है. ऐसा मुझे लगता है. दिल बहलाने के लिए आप कुछ भी कह लें किन्तु श्रेष्ठता का पैमाना विजय ही है. आपके तर्क संतुष्ट नहीं करते. राम अगर युद्ध में हार जाते तो हम 'रावण चरित मानस' पढ़ रहे होते. राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम थे लेकिन उन्होंने भी विजय को सर्वोपरि मानकर छल का सहारा लिया.
अर्जुन, भीम, कर्ण, दुर्योधन की बात रहने भी दें तो श्री कृष्ण तो भगवान् थे. पूरे धर्मयुद्ध में अधर्मं का सहारा भगवान् के इशारे पर ही लिया गया .. क्यों ? विजय के लिए ही न ?

xitija said...

ravi ji kavita achhi hai ... ye baat sach hai ki agar individually dekha jaaye to arjun in maharathiyon ke aage kuch bhi nahi hai ... par baat wo hi ajaati hai ki ye individual ka maamla nahi hai ...

Dr Xitija Singh said...

ravi ji ek baat kehna chahungi agar bura na maane to ... aap is comment ko chahein to delete kar dijiyega ... main jab se aapka blog follow kar rahi hoon aapki saari kavitaein padhin hain.. pichli 2-3 kavitaein aisa laga ki aap shayad kuch proove chahte hain ... main galat bhi ho sakti hoon ... magar mujhe nahi lagta ki ye aapka natural self hai ... aap bahut achha likhte hain .. aapki gazalein , nazmein ... mujhe yaad hai .. ek 'amar lata' .. 'prizm' waali nazm ... ek shayad 'khidki ' waali thi ... sab ki sab shaandaar ... aapne achanak disha kyun badal li ... maaf kijiye bahut bol gayi shayad ... aasha karti hoon aap bura nahi maaneinge ... ek psychologist hoon isliye thori liberty le li bolne ki ... kripya ye comment aap pad kar delete kardijiyega ... aur jo main kehnachahti hoon us par vichar kijiye ga ...

Ravi Shankar said...

@ Avi…

आर्य !

आपको क्या कहूँ ! बस नमन !

Ravi Shankar said...

@ श्रीमन…

आपने कहा "राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे……" क्षमा चाहूँगा पर मेरी सहमति नहीं इस से !राम एक अच्छे शासक थे, वीर थे और बहुत मायनों में अनुकरणीय भी परन्तु मर्यादा-पुरुषोत्तम मानने को मेरी प्रज्ञा अनुमति नहीं देती। आप और हम सिर्फ़ यह क्यों सोचते हैं कि राम या कृष्ण भगवान थे, एक बार ये भी तो सोचिये कि वे एक मानव थे जिन्होने सामान्य रूप से अन्य मानवों की तरह ही जन्म लिया, जीवन जिया, तो क्यों ना उनको भी उनके कृत्यों की कसौटी पर एक बार उसी तरह परखा जाये जैसे हम अन्य मानवों को परखते हैं…! किसी कृत्य को बस इस लिये धर्म-संगत मान लेना कि यह ईश्वर ने किया था,आस्था के लिये तो ठीक है लेकिन तर्कों की कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता ।

मेरा मकसद कोइ विवाद खडा करना नहीं है, ना ही किसी की आस्था को चोट पहुँचाना है। प्रस्तुत कविता एक श्रृंखला की पहली कड़ी है। अगला प्रश्न "राम" से भी पूछा है काल ने …… उस पर आपके विचारों कि प्रतीक्षा रहेगी !

संजय भास्‍कर said...

विजय को सर्वोपरि मानकर छल का सहारा लिया.

संजय @ मो सम कौन... said...

रवि,
आपके सवालों या तर्कों को खारिज नहीं करना चाहता। एकलव्य या कर्ण मेधा के मामले में कैसे भी अर्जुन से कम नहीं थे, आज के समय जैसी वोटिंग होती तो यकीन मानिये अपना वोट भी एकलव्य के पक्ष में जाता। किसी का गुणगान सिर्फ़ उसके विजेता होने के कारण तो कम से कम मैं नहीं करता।
मैंने पिछली पोस्ट में भी जो कहा, उसका उद्देश्य सिर्फ़ ये राय जानना था कि किसी उद्दंड की उद्दंडता सिर्फ़ इसलिये सहन की जानी चाहिये कि मर्यादा में रहकर हम उसका निराकरण नहीं कर सकते? ’शठे शाठ्यम समाचरेत’ वाली बात को ’कांटे से कांटा निकालने’ वाली बात से रिप्लेस कर लें? :)
जब दो में से एक का चुनाव करना हो, दोनों ही बुरे हों तो आप क्या करेंगे? (जैसे आज की राजनैतिक स्थिति है।) I will certainly go with the lesser evil.
आप स्पष्टीकरण दे रहे हैं कि विवाद नहीं खड़ा करना चाहते तो दोस्त हम भी आश्वस्त करते हैं आपको कि सिर्फ़ विचार विमर्श के उद्देश्य से ही कमेंट कर रहे हैं,आपका लिखा अच्छा लगा तो सोचा कि संवाद करने से हो सकता है कि हमारे ही संशय दूर हो जायें।
युद्ध के हक में हम भी नहीं, लेकिन थोपी गई चीज का समुचित जवाब यदि नहीं देंगे तो युद्ध विमुखता के चलते मुझे, आपको या समाज को कोई रिलैक्सेशन नहीं मिलने वाली है क्योंकि सामने वाला भी आपके या मेरे जैसे विचार रखता हो, इसकी संभावना नगण्य है।
महाभारत का युद्ध कोई धर्म-युद्ध नहीं था लेकिन उससे पहले की स्थिति क्या आपको मान्य हैं? उन्हें चलते रहने देना चाहिये था? फ़िर चीर-हरण या खांडव वन जैसी घटनाये होनी बंद हो जातीं, या उनका होना जायज मान लिया जाता?
साधन और साध्य दोनों अच्छे हों तो बहुत बढ़िया, नहीं तो अच्छे साध्य के लिये साधनों के इस्तेमाल में थोड़ी सी छूट ले ली जाये तो मेरी राय में गलत नहीं।
लिखते अच्छा हो बहुत, काश कि हम भी गागर में सागर भर सकते! पोस्ट से अक्षरश: सहमत। इस कमेंट को कमेंट्स पर प्रतिक्रिया ही मानियेगा।

Ravi Shankar said...

@ क्षितिजा जी ....

Aapke sneh ke liye bahut aabhaari hoon ! Kavita par aane ke liye dhanyavad !

==================================================
Main aapki tippani bilkul bhi delete karna nahi chahunga par yah kahna chahunga ki main kuchh bhi prove karne ki koshish nahi kar raha... meri ye pichhli do teen rachnayen jin mein aapko ek alag rang dikh rahaa hai, meri puraani rachnayen hain.... main maantaa hoon ki meri kalam prem aur prem ki peeda mein pagi jyada sughad lagti hai par kabhi kabhi kuchh padhte sochte prem se itar kuchh aur bhi vichaar uthate hain jinhe koshish hoti hai shabd dene ki jaise jab kisi deserving ko uska due raspect nahi milte dekhta hoon,..... ye rachnayen usi koshish ka parinaam hain !

Aap ne itna judaav rakha hai mujh se, main kritagya hoon. Sneh banaye rakhiyega !

Anonymous said...

buddy.....r u okay...???
kurukshetra ghoom kar aaye ho kya.... ;)
dekho yaara...min zada intelligent comment nahin deti...u know that..hihi...
mahabharat par mere ghar mein aksar chintan hota hi rehta hai..i too have my own individual take on every aspect of it....aur i agree wid u....vijay shreshthta ka maapdand bilkul nahin hai....in fact i would say that ye dono bilkul alag cheezein hain...aur karn kaise veeron ki tulna mein arjun kahin bhi nahin. in fact arjun to kisi bhi maayne mein dharm ka aadhaar tha hi nahin, vo to bas ek yoddha tha...jiska kaam dhanush chalana tha...bas.

vijay paana is yuddh aur itihaas ke liye zaroori tha...so paayi gayi...sab kuch ek racha hua khel tha...karn aur eklavya ki shreshthta ki tulna kisi bhi haal mein arjun se nahin ki ja sakti...vo shreshth the...hain...rahenge

par haan...kshitija ji ki baat bhi gaur karne layak hai...main psychologist nahin hoon...na kuch aur jaanti hoon...par bas mujhe tum vo khidki wali, vo prizm aur amarbel jaisi nazmein likhte hi acche lagte ho...take care buddy...

Ravi Shankar said...

@ भाष्कर जी……

धन्यवाद आपका ! रचना पर अपने विचार देने के लिये !

@ संजय सर……



"साधन और साध्य दोनों अच्छे हों तो बहुत बढ़िया, नहीं तो अच्छे साध्य के लिये साधनों के इस्तेमाल में थोड़ी सी छूट ले ली जाये तो मेरी राय में गलत नहीं।"…

सत्य वचन सर जी ! बिल्कुल गलत नहीं…… ! युद्ध से मुझे भी कोई परहेज़ नहीं बस तकलीफ़ है विजयी के अनुचित गुणगान से……! कइ एक बार सुना है चर्चाओं में "अर्जुन सा सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर" तब पीड़ा होती है की एकलव्य सा होने की बात क्यों नहीं की जाती…स्वयम द्रोण सम होने की बात क्यों नहीं की जाती…… कर्ण पर तो गुरु को झूठ बोलने के आक्षेप लगते हैं किन्तु अर्जुन भी क्या गुरु हंता की श्रेणी में शामिल नहीं होते। विजयी होने मात्र से दोष ढँक तो नहीं जाते न सर…। कविता बस इसी विचार से जन्मी है।

अगली कविता भी आपके विचारों की प्रतीक्षा में है :)

Ravi Shankar said...

@ Buddy....

he he he ! ab tum bhi khinchayi mat shuru karo yaara !

aur tu chinta na kar... abhi nikalengi vaisi nazmen bhi.... premii man aakhir kab tak dhairya rakhega preyasi se alag ho kar.. :P he he he.

keep smiling n stay blessed ! :)

Dr Xitija Singh said...

abhi nikalengi vaisi nazmen bhi.... premii man aakhir kab tak dhairya rakhega preyasi se alag ho kar.. :P he he he.


i like this attitude ... keep going ... main ye nahi kehti ki aap aisi kavitaein na likhein ... zaroor likhein ... thora introspection kijiye ... aur aap kya kehna aur batana chahte hain ... us par concentrate kijiye ...

ek aur baat kahungi ... :)..ek maha purush ne kuch samay pehle mujhse kaha tha ... bahut pate ki baat hai... maine to gaanth baadh li hai ... aapse bhi ke deti hoon ...

" ye zaroori hai ki humein maaloom ho ki kya kehna hai ... par usse bhi zyada zaroori hai ye maloom hona ki kya nahi kehna hai "

waitin for ur new post ...
keep goin :)

Anonymous said...

ravi beta...teri band bajne wali hai.....:p lagta hai ab kshitija aur main milke tennu lecture diya karenge.....hihi

aur premi mann....ye bada tedha hota hai....ye peecha ni chodega...and we r happy bout that, latest nazm mein dekh liya ;)

take care buddy ;)

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 28 जनवरी 2017 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

Unknown said...

सच्ची शिक्षा कभी चोरी या झूठ बोलना नहीं सिखाती। और ये दोनों काम महाभारत मे कर्ण और एकलव्य अपने अपने गुरु के साथ किया। जिस शिक्षा की नींव झूठ और चोरी हो वो कितना भी ज्ञानी क्यो न हो वो शिक्षा किसी काम की नहीं होती।

Unknown said...

तुम महामूर्ख हो शायद लालू के बाद दूसरा मूर्खाधिराज तुम पैदा हुआ है ।
वेदव व्यास जिसने 1000000 श्लोकों वाली महाभारत लिखी और न जाने कितने पुराणों की रचना की वो झूठा था और तेरे जैसे फुद्दू जो 50 शब्दो वाली तिन्दी से कविता लिख लिया वो बौना महाभारत को झूठा बताकर अपनी बाते पेल रहा है । इसे कहते है ज्ञान की लोलुपता । पाखंड मत झार ।
दुर्योधन दुष्ट राक्षस था जो सत्ता के लोलुपता में इतना अंधा हो गया था की उसे न तो सही न गलत समझ आता था ।
दुर्योध्न द्वारा भीम को जहर खिलाकर गंगा में फेकना क्या धर्म था ?
दुर्योधन द्वारा कुंती और अपने सारे पांडव बंधुओ को जलाकर मारने का षड्यंत्र धर्म था ?
दुर्योधन द्वारा अपनी माँ समान भाभी का चीरहरण करवाना धर्म था ?
दुर्योधन द्वारा वनवास से पांडवो के वापस आने के बाद भी सुई के नोक बराबर जमीन न देना धर्म था । अबे मूर्ख , श्री कृष्ण ने तो पांडवो के लिए बस 5 गांव मांगा था और उसने तो सुई की नोक के बराबर जमीन ना देने की बात करी क्या ये धर्म था ?
धर्म युद्ध कहता है की एक योद्धा से एक लड़े जबतक की कोई दुसरा उसमे हस्तक्षेप न करे तो फिर सबके मिलकर अभिमन्यु को मारना कौन धर्म था ।
युधिष्ठिर धर्म का प्रतिरूप था और दुर्योधन पाप का ।
दुर्योधन क् समूल विनाश आवश्यक था । कृष्ण चाहते तो दुर्योधन और कौरवों को चुटकी में मार सकते थे मगर उन्होंने देखा पृथ्वी पर दुर्योधन जैसे लाखो पापी अराजकता मचा रहे है अतः उन्होंने सोचा जबतक ऐसे दुष्ट मनुष्य पृथ्वी पर रहेंगे पृथ्वी पे अराजकता बनी रहेगी और इसलिए उन्होंने सोचा की इस अराजकता को समाप्त करने के लिए सारे दुष्टो को मरवा दिया जाए और फिर उन्होंने महाभारत लीला करवा दी ।
धर्मो जयते

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