आज कल बे-ईमान
बहुत हो गये हो तुम.
वजूद अपना जो छोड़ा था
तुम्हारी निगहबानी में...
उसका कतरा भी कोई
अब नही मिलता मुझको
वो सब तुमने छुपा
कर रख लिया है
और इंतेहाँ ये
कि इक इल्ज़ाम
बेवफ़ाई का
मेरे सर कर दिया है
करार-ए-ज़िंदगी
के वो कुछ सफ़हे
जिन्हे चश्मदीद रखा था
ये सब कुछ सौंपते तुमको
तुम्हारे हक़ में
गवाही देने लगे हैं
मुक़दमा ख़ास है ना ये
अदालत ये तुम्हारी है ,
मुद्दई तुम, तुम्हीं मुन्सिफ
वकालत भी तुम्हारी है.
लो मैं कबूलता हूँ
जुर्म अपना...!
सुनो, अब फ़ैसले में
देर मत करो जानाँ ...
अपने आगोश में
उम्र-क़ैद की सज़ा दे दो!
10 comments:
करार-ए-ज़िंदगी
के वो कुछ सफ़हे
जिन्हे चश्मदीद रखा था
ये सब कुछ सौंपते तुमको
तुम्हारे हक़ में
गवाही देने लगे हैं...waah
लो मैं कबूलता हूँ
जुर्म अपना...!
सुनो, अब फ़ैसले में
देर मत करो जानाँ ...
अपने आगोश में
उम्र-क़ैद की सज़ा दे दो!बहुत ही खुबसूरत वो सजा होगी......बहुत खूब..
एक कस्बाई नुमाईश में एक हलवाई(.) की दुकान पर बैनर लगा देखा था,
"लिखा परदेस किस्मत में, वतन को याद क्या करना,
जहाँ बेदर्द हाकिम हो, वहाँ फ़रियाद क्या करना"
हमारे अनुज का वास्ता भी यकीनन किसी बेदर्द हाकिम से पड़ गया है, किये जाओ फ़रियाद प्यारे। खुदा खैर करेगा:)
वाह ………बहुत खूबसूरत अहसास्।
कमाल है अनुज!जुर्म का इकबाल भी और सज़ा की तजवीज भी... देखें मुंसिफ का क्या फैसला होता है!! बाज मर्तबा हम जो सज़ा अपने लिए चुनते हैं मुंसिफ को वो मंज़ूर नहीं होता!!
बहुत खूबसूरत नज़्म है!! सीधा दिल में उतर गयी!!
ऐसी सजा तो काश हर किसी को मिले ... लाजवाब लिखा है ...
अपने आगोश में
उम्र-क़ैद की सज़ा दे दो! ........ऐसी सज़ा सबको मिले...
नज़्म में व्यक्त भावनाएं दिल को छूती हैं।
जो इस किस्से का हिस्सा हैं… लाजवाब लिखा है .
मैं इन लिखावटों में खुद को खो गया …
तुम्हें पढ़ा यूँ इस कदर कि रूह हो गया …
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