Wednesday, December 29, 2010

रिश्ते.......

ऊपर रखना
गुलाब सी रंगत
गहरी परतों में
अश्क़ की तासीर

ये रिश्ते अब
प्याज़ की मानिंद हुए जाते हैं.

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मेरी दौलत
मेरा असबाब था तेरा रिश्ता
आड़े वक़्त के लिए
मुट्ठी में दबा रखा था

खोटे सिक्के सा
हथेली पे निशाँ छोड़ गया.

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मेरे गम पर
उठा लेता है आस्माँ सर पे..
मेरी खुशियों में फलक
नूर से भर देता है

बड़ा बेअदब
वो बेजुबान रिश्ता है...

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जाने कितना
चुका चुका हूँ मैं
कितनी किश्तें
चुकाना बाकी है

वो एक रिश्ता
साहूकार के खाते सा है.

Tuesday, December 14, 2010

ज़िन्दगी क्या है ...

खबर नहीं की खुदी क्या है बेखुदी क्या है *...
सख्त हैरत में हूँ अब और आशिकी क्या है

चमक रही जो जेहन में वो रौशनी क्या है
ये मुझ में आज फिर मुझसे अजनबी क्या है

तमाम लफ़्ज़ों में है दाद शोखियों के तेरे

तेरा जमाल है बस और शायरी क्या है

लज्ज़त--प्यास का तू एहतराम कर तिशनाह
सुबू के सामने टूटे वो तिश्नगी क्या है


उसके पहलु में पड़ा जिस्म मेरा बे-जुम्बिश
गोया ये मौत है तो कह दो ज़िन्दगी क्या है

वही सजदों का सबब है, वही परस्तिश है
मेरे खुदा जो वो नहीं तो बंदगी क्या है .

* गज़ल का पहला मिसरा "मिसरा--तरह" है जिस पर ये तरही गज़ल कही है मैने।
जमाल*- beauty, loveliness; एहतराम*-respect;
तिशनाह*-thirsty;सुबू*- pot that contains water (jug),
तिश्नगी*-thirst, pyaas।

Thursday, December 9, 2010

तू छोड़ दे जन्नत मेरे ख़ुदा...

हम काफिरों को बक्श दे रहमत मेरे ख़ुदा !
आ दिल में बस,तू छोड़ दे जन्नत मेरे ख़ुदा !

हर लम्हा सुर्ख है यहाँ इन्सां के खून से
क्यों सिरफिरों को बख्श दी ताक़त मेरे ख़ुदा

है क्या बिसात गाँधी-ओ-नानक-ओ-बुद्ध की
अब हो गए ये माजी की जीनत मेरे ख़ुदा

जो जिस्म से शफ्फाक हैं पर दिल से कोयले
कैसे करूँ मैं उनकी अब इज्ज़त मेरे ख़ुदा !

काफिर ही कहो मुझको,पर इन्सां तो बचा हूँ
फिरती नहीं हर रोज़ ये नीयत मेरे ख़ुदा !

आ,फिर रहीम-ओ-राम बनके इस जहान में
लुटती तेरे जहान की अस्मत मेरे ख़ुदा !

Monday, December 6, 2010

नन्हीं नज़्में

तुम्हारा होना……
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मुझे छू कर जो गुजरी थी
तुम्हारे अक्स की खुशबू
अब तो हर शब् मेरी सासें
यूँ ही अफरोज रहती हैं
तुम्हारा होना
"मिडास" की छुअन तो नहीं !


मोती……
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स्वाति की इक बूँद
कल मेरी आँख से गिरी थी
तेरी याद की सीपी में

एक नज्म का मोती
आज निकला है वहीँ से


सरगम……
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सा सी साँसों में घुलती जाती है
रे सी रेशमी ख्यालों में
ग सी गर्दन प गुदगुदी जैसी
म सी मुस्कान के उजालों में
प सी पनघट पे एक लहर जैसे
ध सी धडकनों में गाती हुई
नी सी निर्मला ज्यों गंगा कि
दर्द सब संग ले के जाती हुई
वो तो सरगम के सप्त -सुर सी है !

मैं जिसपे गीत लिखता जाता हूँ !

Wednesday, December 1, 2010

मेरी तहरीर में तुझसा शरर नहीं आया

बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया
सफ़र में उसके कहीं अपना घर नहीं आया

होके मायूस सपर जा गिरा शिकंजे में
बिना कफस उसे दाना नज़र नहीं आया

वो एहतराम से करते हैं खूँ भरोसे का
हमें अब तक भी मगर ये हुनर नहीं आया

मेरे वादे का जुनूँ देख, तुझसे बिछड़ा तो
कभी ख़्वाबों में भी तेरा ज़िकर नहीं आया

लगा दे आग हर महफ़िल में नमूं होते ही
मेरी तहरीर में तुझसा शरर नहीं आया

दुश्मनी हमने भी की है मगर सलीके से
हमारे लहजे में तुमसा ज़हर नहीं आया

है "रवि" मील का पत्थर कि जिसके हिस्से में
अपनी मंजिल ,कभी अपना सफ़र नहीं आया

Sunday, November 28, 2010

पवन री ..संदेसा ले जा !!

एक गीत लिखने की कोशिश की है... आप सब के समक्ष रख रहा हूँ ... स्नेह और सुझाव दीजियेगा :
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पवन री !
संदेसा ले जा ........!!

मोरे पी तो..... गए रे बिदेसवा
पाती लिख नहीं पाते ...
तू समझे गति ...मुझ विरहन की
ले चल मुझको उड़ा के

मोहे पीयू का दरस दे जा
पवन री ...... !
संदेसा ले जा ........!!

सूनी गलियन पर...बाट मैं जोहूँ ...
जग-जग दृग पथराये ...
मन मृग बन कर भटके बन-बन
कस्तूरी ना पाए ...

मोहे पी की लगन दे जा ..
पवन री ...... !
संदेसा ले जा ........!!

हिय सुलगे सुन... लाकड़ी जैसे
तू जो हिलोरे खाए ...
मन वीणा की तान बिलखती
प्रियतम तक ना जाए ...

मोहे पी से मिलन दे जा
पवन री ...... !
संदेसा ले जा ........!!

Thursday, November 25, 2010

तुम जीवन उनमें भर देना ..

मैं साँसें वारूँ तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

जीवन उपवन मृतप्राय अभी
हुए व्यर्थ मेरे उपाय सभी
मैं लाख जतन कर के हारा
मन-पुष्प नहीं खिल पाए कभी

मैं झुलसा मन सौपूं तुमको
तुम सिंचन उसका कर देना
मैं साँसें वारूँ
तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

मानस पे जम गई धूल प्रिये
अब झूठ दिखे स्थूल प्रिये
अब लोभ मोह लालच मद में
भूला जीवन का मूल प्रिये

मैं अपने भाव तुम्हे दे दूं
तुम पावन उनको कर देना..
मैं साँसें वारूँ
तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

है द्वेष भरा यह जीवन अब
बस आशाओं का क्रंदन अब
सुलग सुलग स्वाहा होता
बेमतलब तन का चन्दन अब

इस जग की प्रेम समिधा में
तुम अर्पण इसको कर देना
मैं साँसें वारूँ
तुम पर
तुम जीवन उनमें भर देना ..

Thursday, November 11, 2010

यक्ष - प्रश्न काल के-2




तमाम साथियों/सुधी जनों की सलाह के बावजूद पिछ्ली दो रचनाओं की ही अगली कड़ी रख रहा हूँ आपके समक्ष, क्योंकि अगर कोइ अन्य कविता डाली तो श्रृंखला अधूरी रह जायेगी…… सो गुजारिश है कि कम से कम एक मर्तबा और झेलिए इस खुराफ़ात को…… और इस पर अपने विचार भी रखिये।

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हे कोशलेश !

कहे जाते हो तुम मापदंड
उत्तम-अनुकरणीय आर्य
आचरण के ...
किन्तु कुछ शंकाएँ हैं
अंतर में ...
उत्तर दे पाओगे ??

क्या मर्यादित था
वध बाली का ...
जिस पर किया था घात
परोक्ष तुमने ...
मित्र की सहायता की
ओट में ??

क्या मानते हो
अनुकरण योग्य
परित्याग मैथिली का ...
एक अनर्गल प्रलाप पर
जिसकी सत्यता के साक्षी
स्वयं तुम थे ??

कभी खड़े हो पाओगे
समक्ष उर्मिला के ... ?
जिसने त्याग दिया
अपना भाग्य
तुम्हारा भाग्य
सँवारने को ...

यदि निभानी थी मित्रता
करते स्वस्थ युद्ध
मित्र के अधिकार हेतु ...

निर्भीक घोषित करते साक्ष्य
जानकी की पवित्रता के
तब प्रकट होता
पुरुषार्थ तुम्हारा ...

सर्वथा रहते कृतज्ञ
अनुज के ...
जिसे त्याग का प्रतिदान
दिया था तुमने ...

क्षमा करना नृपश्रेष्ठ !
किन्तु कदाचित लेना पड़े
नव-जन्म तुमको
मर्यादा-पुरुषोत्तम होने को !

Tuesday, November 9, 2010

यक्ष - प्रश्न काल के-1


सुनो पार्थ !

है साहस तुम में ??
उठाओ गांडीव अपना
तान दो प्रत्यंचा
और सिद्ध कर दो स्वयं को
धनुर्धर सर्वश्रेष्ठ ...!

किन्तु रुको ...
क्या एकलव्य समक्ष
ठहर पाओगे ?
क्या वाणी कर पाओगे
अवरुद्ध वाचाल श्वान की ?
क्या दे पाओगे
आहूति रक्तिम ,
गुरु-यज्ञ की ज्वाला में ?

यदि दे भी पाओ ये,
तो क्या किसी याचक को
दे दोगे अपनी साधना सम्पूर्ण ?
क्या पाल पाओगे प्रण अपना
मूल्य पे अपने प्राणों के
कर्ण की भाँति ??

यद्यपि,
तुम धनी हो धनुष के
और सदा-हरित तूणीर तुम्हारा !
निस्संदेह विजयी भी ...
शायद इसलिए इतिहास पर
अधिकार तुम्हारा !

किन्तु हे धनुर्धर ,
विजय मेरी दृष्टि में
कदापि साधन नहीं
सर्वश्रेष्टता के मानक का !

Wednesday, November 3, 2010

वीरता का इतिहास






वीर सदा हंस कर पलता हैं ,
असि पर और शरों पर,
जिसकी गाथा खेला करती ,
सदा जगत अधरों पर

वीरत्व सदा जाना जाता हैं ,
अपने तेज प्रखर से ...
साहस रखता जो तोड़ सितारे
ले आने का अम्बर से

सच हैं , वीरता ही रख सकती
हैं विजय की चाह ...
पर हैं सच्चा वीर सदा
जो चले धर्म की राह

वही विजय हैं पूज्य की जिसमे
निहित भुजा का बल हो ...
नहीं कोई भी कपट कोई
लेश मात्र भी छल हो

कहते हैं की वीर पार्थ सम
हुआ कोई जग में ...
पर क्या था कोई मुकाबला
उसमे और एकलव्य में ?

क्या ठहर सकता था कोई
कर्ण समक्ष समर में ..
महाकाल ही स्वयं बसा था
जिस महाबली के शर में

द्रोण-भीष्म सम महारथी भी
मारे गए कपट से ...
वरन काल भी जीत पाता क्या
इन महावीर उद्भट से !

माना कि था भीम सुशोभित
सौ हाथियों के बल से ...
पर कुरुराज पर उसकी विजय भी
क्या नहीं हुई थी छल से

नीति कहती हैं गदा -प्रहार
सदा होता कटि के ऊपर ...
किन्तु भीम ने गदा हनी थी
दुर्योधन की जंघा पर !

ह्रदय सन्न कर देती थी
दुर्योधन की चीत्कार ...
हा ! धर्मराज के भ्राता ने ही
दिया धर्म को मार ... !

लज्जित थी मानवता,
पांचाली का
जब हरण हुआ था चीर ...
कर बांधे बैठे रह गए थे
अर्जुन भीम सम वीर

पर सच हैं यह भी कि वीरता
फिर निर्वस्त्र हुई थी ...
धर्म -युद्ध में कर्ण की हत्या
जब निः -शस्त्र हुई थी !

इतना ही नहीं पूर्व में भी
मर्यादा का हुआ हरण था ...
मर्यादा-पुरूषोत्तम ने जब कपट से
जय का किया वरण था

महावीर बालि जिसको
जीत सका कोई बल से ...
राम ने छिपकर संहार किया था
उसका भी तो छल से

कुटिलता से होती हैं दूषित
शूरता साफ़ - सुवर्ण
वीरत्व के अधिकारी हैं सच्चे
अभिमन्यु और कर्ण

इनके इंगित ओर ही विधि की
रेख मुडी जाती हैं ...
ऐसे पुत्र ही पा जननी की
छाती जुडी जाती हैं


शब्दार्थ : असि - तलवार, कटि - कमर, इंगित - निर्देशित !

Tuesday, November 2, 2010

कुछ दोहे गण/गन तन्त्र के ……




(1)
गणतंत्र भला अब देश में कैसे इज्जत पाए !
जब "गन"तंत्र से चुना हुआ,नेता कुर्सी पे आये!!
(2)
गणतंत्र के वृक्ष का, निज लाभ बना है मूल !
बस वही मूल तो फूल है,बाकी सब त्रिशूल !!
(3)
बैंक बैलेंस उन्नति आहे,सब उन्नति को मूल !
निज उन्नति पर गौर करो,राष्ट्र पे डालो धूल !!
(4)
सारे दिन हैं उलट-फेर के,माल कमाना काम !
गणतंत्र दिवस अवकाश का,सारी मिटे थकान !!
(5)
लूट लिया धन देश का,बाँध पोटली गाँठ !
लोकतांत्रिक देश में,लोग ही भटके बाट !!
(6)
भ्रष्ट लोकमत देख के,गणतंत्र पकड़ता कान !
गन ही हैं गणतंत्र में, अब कुर्सी कि जान !!

Saturday, October 30, 2010

हर माह नया घोटाला कर

यूँ खुशफहमी न पाला कर
कोई सच नंगा न उछाला कर

ईमान न जीने देगा तुझे
दुनिया में गड़बड़ झाला कर

बस अपना धंधा चमका तू
जनहित के काम को टाला कर

तनख्वाह रखे भूखा सबको
हर माह नया घोटाला कर

हुई ख़त्म गुलामी गोरों की
जो भी धंधा कर काला कर

इक झूठा चेहरा गढ़ हर पल
सच के सांचे में ढाला कर

निज-स्वार्थायन नित बांचा कर
हाथन नोटों की माला कर

जयचंद पाल ले घर में और
हर भगत को देश निकाला कर

Friday, October 29, 2010

मोहब्बत की जलन बाकी है ..


आँख में रंज है,चेहरे पे शिकन बाकी है ..
अए जिंदगी, तेरे लहजे में थकन बाकी है ...

कटे हैं पर और कफस में हैं परिंदा भी ..
मगर निगाह में मंजिल की लगन बाकी है

हुआ ही क्या जो ये भीगी रही थी कल शब् भर
तुम्हारी आँख में मोहब्बत की जलन बाकी है ..

लाख जख्म को मरहम दिया हैं काँटों ने ..
पर अब भी पाँव में फूलों की चुभन बाकी है ..

अपनी निस्बत में सौदा तो था बराबर का ..
हमारे जिस्म पे अब तेरा कफ़न बाकी है ...

Tuesday, October 26, 2010

प्रिज्म और ब्लैक होल


शक्सियत मेरी दुनिया में
किसी सूरज कि मानिंद थी
कि जिसमें आग थी केवल
दहकती,रूह झुलसाती...

तुम आई जो मेरे पास
कोई प्रिज्म हो जैसे ..
मेरे अंतस को सहलाया
तो कितने रंग बिखरे हैं

गुलों को बैगनी रंगत
लहर को नील बख्शा है
फलक है आसमानी सा
धनक धरती पे रखा है

फुलाई पीली सरसों का

हवाओं में घुला है रंग
वो रंगत केसरी सी है
जो बैठी है शफक के संग

हया ने जो चुना है रंग
वो लाली मुझसे बिखरी है
तेरी ही सादगी में घुल

ये रंगत मेरी निखरी है

मगर अब भी मेरी जाना
है दिल में आरज़ू बाकी
कि तुम प्रिज्म सी होकर
उफक कि ब्लैक होल होती ...

मेरा रौशन हर एक कतरा
फकत तेरे लिए होता ..
मैं बस तुझसे गुजरता
और तेरी आगोश में सोता

Saturday, October 23, 2010

अमर -बेल




सुना हैं मैंने ,
पेड़ों पर जब
अमर -बेल की लत्ती
कोई चढ़ जाती हैं ..
घूँट -घूँट कर
पी जाती हैं तने को उसके ..
और घने जंगल को
खाली कर जाती हैं ....

तुम आओ न ,
एक रोज तो दिल में
और लिपटो इस से
अमर -बेल सी ...
देखो तो
इस दिल में कितने
दर्द के जंगल
उग आये हैं .....

Wednesday, October 20, 2010

तेरे ख़याल की खिड़की




दिल के तख्ते पे धड़कन
ठक-ठक सी बजती है ..
किसी बढ़ई के
हथौडे की मानिंद ..

दर्द की कील से
यादों के खांचे कसता ..
वक़्त रन्दे सा
बरसों के जिस्म
छीलता रहता है अक्सर ..
और लम्हों के बुरादे
बिखड़े पड़े है देखो ...

जाने किस रोज
मुकम्मल होगी
तेरे ख़याल की खिड़की
मैं जिसको
जिंदगी की दीवार में जड़ कर
तेरे तसव्वुर की रौशनी
पीने का रास्ता निकालूँगा...!

Tuesday, October 19, 2010

दिल के देश में अब के बरस सूखा पड़ा है न ...!



यूँ तो हर साल आती थी ,
तुम्हारे याद की तितली ..
मेरे जेहन की मिटटी का
परागन करने ...

तेरे तसव्वुर के बीजों को
बिखरा जाती थी
हर बार
और मेरा गुलशन
खिल उठता था
हरा भरा हो कर

वो अबकी आई है
फिर से बीज लिए ..
मगर मुश्किल में है
कहाँ बैठे ..
जेहन की मिट्टी तो
सारी बंजर है ..

दिल के देश में
अब के बरस
सूखा पड़ा है न ...!

Sunday, October 17, 2010

तुम अगर दो साथ...


तुम अगर दो साथ...
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ. ...

मैं भटक रहा हूँ विस्मित ...
विस्मृति के पथ पे किंचित ...
मार्ग हैं अवरुद्ध आगे .. ..
लक्ष्य भी है अब तिरोहित ...

तुम से पा कर राह फिर से ..
मैं नए सोपान गढ़ लूँ. .....
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !

माथे की हैं रेख काली ...
और भाग्य का लेख खाली
संपदा इस कृपणता की
मैंने वर्षों है संभाली

प्रीत की स्याही से फिर मैं
विधि का नया विधान गढ़ लूँ. ..
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !

मैं राग से भटका हुआ सुर ,
लय बस छुट जाने को आतुर ...
गान मेरा छीन न ले ..
ये समय की धुन है निष्ठुर

श्वास की हर लय पे तेरे
मैं कई अनुतान गढ़ लूँ. ..
तुम अगर दो साथ ..
मैं जग के नए प्रतिमान गढ़ लूँ !

Thursday, October 14, 2010

मेरा नाम मुकम्मल हो जाए ...

आगाज़ जो हो तेरे हाथों से, अंजाम मुकम्मल हो जाए ,
मेरा नाम जुड़े तेरी हस्ती से, मेरा नाम मुकम्मल हो जाए ...

दुनियावालों ने यूँ मुझपर , तोहमत तो हजारों रखी हैं ..
एक तू जो दीवाना कह दे ,इल्जाम मुकम्मल हो जाए ...

ये फूल ,धनक , माहताब , घटा , सब हाल अधूरा कहते हैं
तू छू ले अपनी आँखों से , पैगाम मुकम्मल हो जाए ...

मैं दिन भर भटका करता हूँ , लम्हों की सूनी बस्ती में ..
जो गुजरे तेरी यादों में , वो शाम मुकम्मल हो जाए ...

दे दुनिया मुझको दाद भले ,अंदाज़-ए-सुखन हैं खूब 'रवि '..
एक तेरा तबस्सुम और मेरा , ईनाम मुकम्मल हो जाए ...

Tuesday, October 12, 2010

हथियार कलम बन जायेगी ..


देनी है फिर आज चुनौती,
सत्ता के गलियारों को

गूंगा कर देना है फिर से

धर्म जात के नारों को ..

हो समान अधिकार, बराबर

कद हो सबकी हस्ती का ..
एक कौम हो,एक ही मजहब,
केवल वतनपरस्ती का ..

जिस दिन ऐसे संकल्पों की हूंकार कलम बन जायेगी ..
उस दिन जन-जन के हाथों का हथियार कलम बन जायेगी ..

आज सभी धृधराष्ट्र बने हैं

इस सत्ता के धंधे पर

सर लोकतन्त्र का झूल रहा है

भ्रष्टाचार के फ़न्दे पर्…

संसद है फिर द्युत-क्रीड़ा

गृह सी सजी हुई ..
है आन वतन की

आज दांव पर लगी हुई ..

जिस दिन अर्जुन के धन्वा की टंकार कलम बन जायेगी

उस दिन जन-जन के हाथों का हथियार कलम बन जायेगी..

जिन्दा लोगों की बस्ती में

फिर मरघट सा सन्नाटा है…
सच कहना तो है दूर, ह्रदय

सच सुनने से थर्राता है ..

जीते रहना कुछ भी सह कर,
क्या जीवन का आधार यही ..
जब तक बाकी हो सांस हमें
अन्याय न हो स्वीकार कभी ..

जिस दिन अश्रु के बदले रक्त की धार कलम बन जायेगी ..
उस दिन जन-जन के हाथों का हथियार कलम बन जायेगी ..

Saturday, October 9, 2010

सुनो न जानाँ ....


सुनो न जानाँ ....
गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....

दिल की हर धड़कन से फिर
एक तान सुरीली आती थी ...
ये पुरवाई धीमी धीमी
मद्धम से साज बजाती थी ...

और वक़्त के हाथों की
तबले पर संगत होती थी ...
शरमाये इस मौसम की
फिर शफक सी रंगत होती थी ...

इन साँसों के अवरोहों में
कई राग पुराने जगते थे ....
और रात की आँखों में
कुछ ख्वाब सुहाने पकते थे ...

पर देखो न ये साज यूँही ..
बरसों से रूठे बैठे हैं ...
ये लफ्ज़ मेरे , अब तेरे बिन
सरगम से छूटे बैठे हैं ...

तुम आओ न और रख लो इन्हें
अपने होठों की पंखुरी पर
की गीत मेरे फिर राधा से
थिरकें कान्हा की बांसुरी पर ...

फिर दे दो इन्हें परवाज़ वही
ये पाँव फलक पर रखते थे ...
सुनो न जानाँ ....गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....

Friday, October 8, 2010

तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....


जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....

जाडों में फुटपाथों पर
जब रात सिसकती रहती हो
फटे चिथरों में लिपटी

जब भूख बिलखती रहती हो

जब तन में क्षुधा हो रोटी की
तब चाँद प्रिया दिखे कैसे
जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....

जब चौराहों पर ये बचपन

भट्ठी -चूल्हे में सिंकता हो
जब अबलाओं का वस्त्र-वरण

रुपयों -पैसों में बिकता हो

तब अश्रु -बीज से उपजा जो
चुम्बन के मोल बिके कैसे
जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....

घुटती मर्माहत चीखों से
जब राष्ट्र दग्ध हो जलता हो

जब लहू शिराओं में नख -शिख
हो कर उद्विग्न उबलता हो

तब जग -पीड़ा के सम्मुख फिर
भला निज की चाह टिके कैसे
जब उर -अंतर में पीड़ा हो
तब कलम प्रेम लिखे कैसे ....

Sunday, October 3, 2010

उस रात तुम्हारे आने का ...


उस रात
तुम्हारे आने का
इमकान हुआ था जब मुझको ....

मैंने झट से उफक की छत पर
टांगा था एक चाँद नया ,
और बादल के एक फाहे से
फिर आसमान को साफ़ किया ....

उस रोज सितारों की ऊपर ..
एक झिलमिल चादर टाँगी थी ,
और पुरवाई से चुपके से
भीनी सी खुशबू मांगी थी ..

कि आओगे और भर लोगे
तुम मुझको अपनी बांहों में
और शब् सारी शब् थिरकेगी ...
पाजेब पहन के पांवों में ...

अठ -खेली होगी अपनी ..
जगते ख्वाबों की बस्ती में ...
दूर फलक के पार चलेंगे
पूनम की सुनहरी कश्ती में ....

देखो हर रात यूँ ही ..
तेरी आमद की ख्वाहिश में
मैं घर को सजाता रहता हूँ
और दिल को दिलासा देता हूँ ...
तुम आओगे ...बस चल ही दिए ..
रस्ते में हो ...अब पहुंचोगे ...

उस रात
तुम्हारे आने का
इमकान हुआ था जब मुझको ....

Saturday, October 2, 2010

चाय की पत्ती




जिंदगी ...
वक़्त की आंच पर
उबल रही हैं और
उड़ती जाती हैं ..
भाप होती हुई ..
बेरंग और बेस्वाद सी ..

बस एक चम्मच
वफ़ा का ले आओ
और अपने तसव्वुर का
इक मीठा टुकडा ..

फिर देखो ..
लम्हों की हर घूँट
तमाम उम्र को ..
जिस्मो -जेहन में
ताज़गी सी भर देगी ..

तुम्हारी वफ़ा तो बस चाय की पत्ती सी हैं ।

Friday, October 1, 2010

भाव कहाँ से लाऊं मैं


तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ..

तुम मेरे विचारों की मेधा
तुम शब्दों का अनुकूल चयन
तुम सब दृश्यों का परिपेक्ष्य
तुम ही हो कवि का अंतर्मन ...

तुम बिन अपनी रचना के
निहितार्थ कहाँ से पाऊं मैं
तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ..

तुम सब रागों की सरगम हो
तुम साँसों का आरोहन
तुम नृत्यों की भाव -भंगिमा
तुम्ही कलाएं मनभावन ...

तुम न हो तो तबले पर
पद -क्षेप कहाँ बैठाऊं मैं
तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ..

तुम रंगों की परिभाषा
तुम चित्रों का संदर्श प्रिये ..
तुम जड़ छाया को चेतन करती
तूलिका का स्पर्श प्रिये ...

तुम बिन जीवन के चित्र -पटल पर
जड़ होके न रह जाऊं मैं ...
तुम बिन गीत भले रच दूँ
पर भाव कहाँ से लाऊं मैं ....

Thursday, September 30, 2010

मेरे हमनफस तू जो साथ हो..


मेरे हमनफस तू जो साथ हो
तो किसे मंज़िलों की तलाश हो

चाहे हो बहारों की रहबरी
या कि खार चलते हों हमकदम
वो सफ़र रहेगा सुकूँ भरा
मेरे हाथों में जो तेरा हाथ हो

मेरे हमनफस ! तू जो साथ हो..
तो किसे मंज़िलों की तलाश हो..

चाहे राह निकले खलाओं से
या कि उड़ के गुजरें घटाओं से
कोई दस्त-ओ-दरिया हो रूबरू
या चलें ज़न्नती फ़ज़ाओं से

हर एक शय होगी मय-छलक
चाहे जैसी भी कायानात हो
मेरे हमनफस तू जो साथ हो
तो किसे मंज़िलों की तलाश हो

जो कदम मेरे कभी गिर पड़ें
कभी हौसला ज़मींदोज़ हो
कभी रूह निकल जाए जिस्म से
ये कोई हादसा किसी रोज़ हो

मुझे थाम लेना सनम मेरे
किसी डर की फिर क्या बिसात हो
मेरे हमनफस ! तू जो साथ हो..
तो किसे मंज़िलों की तलाश हो..

Latitudes




स्कूल में टंगे
दुनिया के नक्शे पर
कितनी ही आड़ी -टेढी
लकीरें हुआ करती थीं .....

क्लास में
जिन का पढ़ कर हम
दुनिया की मनचाही जगहें
ढूंढ लिया करते थे ...

मैं फिर
माज़ी की क्लास में बैठा ...
उम्र के
latitudes को पढना
सीख रहा हूँ ..

कि जिंदगी के नक्शे पर
लम्हों की उस बस्ती को
फिर से दूंढ़ सकूं ..
जहाँ मैं और तुम
अब भी साथ रहा करते हैं ... !

Monday, May 10, 2010

खुदा सा हो जाऊंगा मैं भी .


मैं उस रोज
देर शाम
दरिया पे बैठा था ...

लहरों पे चस्पा
तुम्हारा चेहरा
देर तक तकता रहा था मुझको ..
और मेरे अन्दर ही अन्दर
तुम बहती रही थी मीलों ...

किनारों की मिटटी
को घिसती लहरें
शायद
रास्ता बदल रहीं थी दरिया का ....
और मैं भी उसी मिटटी की मानिंद
घुलता जा रहा था तुझमे ...

मेरे कतरे अब तुझमे
मिल चुके हैं ....
और सफ़र करते हैं
अब तेरे संग ही ..
तुम्हारी तलहटी में
कहीं अन्दर ..
चाहे तुम जितना भी
रास्ता बदल लो ....

जब किसी समंदर में
मिलने से पहले
तुम मुझको डाल दोगी
किसी अपने ही साहिल पर
फिर मैं जन्म दूंगा
जाने कितने दरख्तों को .
और तुम्हारी खुदाई
का कुछ हिस्सा लेकर
खुदा सा हो जाऊंगा
मैं भी .
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