समा ले खुद में मुझे और मुझको तू कर दे
रगों में दर्द जमा है, उसे लहू कर दे ।
मेरी हयात के लम्हों पे नाम उसका हो
मेरी वफ़ा को खुदा बस मेरा जुनू कर दे ।
वो गर उठे तो झुका दे फलक परस्तिश में
नज़र मिले तो निगाहों को बावजू कर दे* ।
खुले हैं जख्म कई , रिस रहा है पैराहन
है कोई इल्म जो निस्बत को भी रफू कर दे ?
मैं सारी उम्र तेरी ख्वाहिशों के नाम हुआ
तू एक बार फकत , मेरी आरज़ू कर दे !
* के निशान वाला मिसरा "मिसरा-ए-सानी" है जिसकी तरह (रदीफ़ और कफ़िये पर) ये ग़जलनुमा चीज आप सब के सामने जलवाफ़रोश हुई है :)
एक तेरी मोहब्बत ने बनाया हैं खुदा मुझको,मैं रोज खल्क करता हूँ नया संसार ग़ज़ल में..
Sunday, February 20, 2011
Sunday, February 13, 2011
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो......!
हो दम साधे यूँ मौन खड़े,
क्यों हो यूँ मृतप्राय पड़े,
चुप्पी तोड़ो, मुंह का खोलो,
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो......
युग परिवर्तित करने को
क्रांति की, राह थामनी होती है,
कुछ करने को, करने की
मन में, चाह थामनी होती है,
कल्पना को दो उड़ान,
मन के दरवाजों को खोलो,
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो....!
पीड़ा-प्रताड़ना के भय से ,
तुम चुप्पी कब तक साधोगे,
अन्याय व शोषण सहने की
बोलो क्या सीमा बाँधोगे,
अब तो उठ कर विद्रोह करो,
अपनी शक्ति को तोलो,
हे मौनव्रती अब तो बोलो...!
साक्षी हैं इतिहास की जब भी
मौन बनी चिंगारी है,
पापों की चिता है धधक उठी,
हुई नतमस्तक सृष्टि सारी है,
जागो, जग का नेतृत्व करो,
बढ़ व्योम-सितारों को छू लो,
हे मौनव्रती अब तो बोलो....... !
क्यों हो यूँ मृतप्राय पड़े,
चुप्पी तोड़ो, मुंह का खोलो,
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो......
युग परिवर्तित करने को
क्रांति की, राह थामनी होती है,
कुछ करने को, करने की
मन में, चाह थामनी होती है,
कल्पना को दो उड़ान,
मन के दरवाजों को खोलो,
हे मौनव्रती कुछ तो बोलो....!
पीड़ा-प्रताड़ना के भय से ,
तुम चुप्पी कब तक साधोगे,
अन्याय व शोषण सहने की
बोलो क्या सीमा बाँधोगे,
अब तो उठ कर विद्रोह करो,
अपनी शक्ति को तोलो,
हे मौनव्रती अब तो बोलो...!
साक्षी हैं इतिहास की जब भी
मौन बनी चिंगारी है,
पापों की चिता है धधक उठी,
हुई नतमस्तक सृष्टि सारी है,
जागो, जग का नेतृत्व करो,
बढ़ व्योम-सितारों को छू लो,
हे मौनव्रती अब तो बोलो....... !
Monday, February 7, 2011
दो साइंटिफ़िक नज़्में … :)
ज़िन्दगी का त्रिभुज
~~~~~~~~~~~~~
बचपन में
कई बार पढ़ा था
भुजाएं त्रिभुज की
अपने अनुपात बदल कर
कोणों के मान
बदल देतीं हैं अक्सर
उम्र मुद्दत से खड़ी है
वक़्त के त्रिभुज में
हर पल ख़ुशी और ग़म
के अनुपात गिनती हुई
और मैं
कब से बैठा
हिसाब लगा रहा हूँ जाने ..
मगर ज़िन्दगी
हर बार "थीटा" की तरह
मायने बदल जाती है !
===============================================================
धरती का कोर
~~~~~~~~~~~
मेरे जेहन की धरती में
कुछ पत्थर से एहसासों
के बहुत नीचे
तुम्हारी याद का गर्म लावा
चक्कर लगाता रहता है हरदम
और उस से निकलने वाली तरंगें
अपने महफूज़ आगोश में
समेटे रहती हैं मुझको ...
जहाँ ग़म का कोई सूरज
कभी जला नहीं पता है मुझको
बहुत सकते में हूँ जानाँ
जबसे सुना है ये
कि किसी दिन
धरती का कोर
रुक जायेगा जम कर
और ये इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कवच
टूटेगा… बिखर जाएगा !
मैं जानता हूँ यूँ
कि मुहब्बत
किसी आइन्स्टीन या डार्विन का
सिद्धांत नहीं ..
मगर सच्ची बताओ जानाँ
कहीं तुम भी तो नहीं ................................. !
[एक जियो-फिज़िक्स के जर्नल में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ था कुछ वक़्त पहले की धरती का कोर [क्रोड़] जो लगातार घूमता रहता है और जिस से उत्पन्न इलेक्ट्रो-मॅग्नेटिक फील्ड धरती की रक्षा करता है विध्वंसक सौर-तरगों [अल्ट्रा-वायलेट और इन्फ़्रा-रेड रेज] से, उसकी गति धीमी हो रही है और कुछ सौ सालों में ये रुक जाएगा और ये फील्ड ख़त्म हो जाएगी । इस विषय पर एक फ़िल्म भी बन चुकी है।....चूँकि फिज़िक्स मेरा पसंदीदा सब्जेक्ट रहा है और वो जर्नल मेरे हाथ आया कुछ वक़्त पहले तो कुछ कहने की कोशिश की है इस पर.... झेलिए ! :P :P]
~~~~~~~~~~~~~
बचपन में
कई बार पढ़ा था
भुजाएं त्रिभुज की
अपने अनुपात बदल कर
कोणों के मान
बदल देतीं हैं अक्सर
उम्र मुद्दत से खड़ी है
वक़्त के त्रिभुज में
हर पल ख़ुशी और ग़म
के अनुपात गिनती हुई
और मैं
कब से बैठा
हिसाब लगा रहा हूँ जाने ..
मगर ज़िन्दगी
हर बार "थीटा" की तरह
मायने बदल जाती है !
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धरती का कोर
~~~~~~~~~~~
मेरे जेहन की धरती में
कुछ पत्थर से एहसासों
के बहुत नीचे
तुम्हारी याद का गर्म लावा
चक्कर लगाता रहता है हरदम
और उस से निकलने वाली तरंगें
अपने महफूज़ आगोश में
समेटे रहती हैं मुझको ...
जहाँ ग़म का कोई सूरज
कभी जला नहीं पता है मुझको
बहुत सकते में हूँ जानाँ
जबसे सुना है ये
कि किसी दिन
धरती का कोर
रुक जायेगा जम कर
और ये इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कवच
टूटेगा… बिखर जाएगा !
मैं जानता हूँ यूँ
कि मुहब्बत
किसी आइन्स्टीन या डार्विन का
सिद्धांत नहीं ..
मगर सच्ची बताओ जानाँ
कहीं तुम भी तो नहीं ................................. !
[एक जियो-फिज़िक्स के जर्नल में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ था कुछ वक़्त पहले की धरती का कोर [क्रोड़] जो लगातार घूमता रहता है और जिस से उत्पन्न इलेक्ट्रो-मॅग्नेटिक फील्ड धरती की रक्षा करता है विध्वंसक सौर-तरगों [अल्ट्रा-वायलेट और इन्फ़्रा-रेड रेज] से, उसकी गति धीमी हो रही है और कुछ सौ सालों में ये रुक जाएगा और ये फील्ड ख़त्म हो जाएगी । इस विषय पर एक फ़िल्म भी बन चुकी है।....चूँकि फिज़िक्स मेरा पसंदीदा सब्जेक्ट रहा है और वो जर्नल मेरे हाथ आया कुछ वक़्त पहले तो कुछ कहने की कोशिश की है इस पर.... झेलिए ! :P :P]
Thursday, February 3, 2011
फिर से उसी नाम से पुकार मुझे...
कि भिगो दे ये मोहब्बत का आब'शार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे!
भोर को पैकर-ए-माहताब मे ढलता देखूं
जिस्म का मोम तेरी लौ से पिघलता देखूं
तुझमे में खो कर ही आएगा अब करार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !
अपने मसले में जमाना नही मुनसिफ़ होगा
अपना अंजाम भी औरों से मुक्तलिफ़ होगा
इन हसीं ख्वाबों का होने दे ऐतबार मुझे
मेरी जान फिर से उसी नाम से पुकार मुझे!
अपना अफ़साना रहती तारीख़ तलक गूंजेगा
ये ज़मीन गाएगी धुन मे, ये फलक गूंजेगा
क्यों डराते हैं और फानी से किरदार तुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !
लोग उठाते हैं गर निगाह तो उठाने दे
तू मुझको-ख़ुदको मुहब्बत में डूब जाने दे
पूरा करने दे अब उल्फ़त का शाहकार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !
ये नज़्म दरअसल एक दूसरी नज़्म को पढते हुए जन्मी थी… तो इसे उस नज़्म की पूरक मान सकते हैं। पहली नज़्म "साँझ " की ब्लॉग पर है…!
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे!
भोर को पैकर-ए-माहताब मे ढलता देखूं
जिस्म का मोम तेरी लौ से पिघलता देखूं
तुझमे में खो कर ही आएगा अब करार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !
अपने मसले में जमाना नही मुनसिफ़ होगा
अपना अंजाम भी औरों से मुक्तलिफ़ होगा
इन हसीं ख्वाबों का होने दे ऐतबार मुझे
मेरी जान फिर से उसी नाम से पुकार मुझे!
अपना अफ़साना रहती तारीख़ तलक गूंजेगा
ये ज़मीन गाएगी धुन मे, ये फलक गूंजेगा
क्यों डराते हैं और फानी से किरदार तुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !
लोग उठाते हैं गर निगाह तो उठाने दे
तू मुझको-ख़ुदको मुहब्बत में डूब जाने दे
पूरा करने दे अब उल्फ़त का शाहकार मुझे
मेरी जाँ फिर से उसी नाम से पुकार मुझे !
ये नज़्म दरअसल एक दूसरी नज़्म को पढते हुए जन्मी थी… तो इसे उस नज़्म की पूरक मान सकते हैं। पहली नज़्म "साँझ " की ब्लॉग पर है…!
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