वह विजय में है मेरी और हार में भी
शीर्ष पे और मध्य में, आधार में भी
मनसा-वाचा-कर्मणा में वो समाहित
वह पृथन में भी मेरे, अभिसार में भी
आरोहण-अवसान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...
जेठ में है, पूस में है, फाग में वो
विधि रचित हर कण में है, हर भाग में वो
वृक्ष की हर पात के कलरव में गुंजित
विहग के झुण्डों के हर इक राग में वो
रात्रि-रज़ हर बूँद उसके आचमन में
हर नया विहान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...
मैं भ्रमित हूँ,मुझ में या परिवेश में है
मैं हूँ उसके या वो मेरे वेश में है
मन की हर संवेदना है जनित उससे
वो मेरे अनुराग में है , द्वेष में है
अश्रु और मुस्कान इष्टा को समर्पित
मेरा हर इक गान इष्टा को समर्पित...
10 comments:
खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति....
अनुज,
'उसकी'उपस्थिति का ऐसा भान कि अपने अंतस के अंतरतम गह्वर में भी वही है और बाह्य के अनंत में भी वही!!
एक ऐसी रचना जिसने अंतःकरण को वशीभूत कर लिया!!
वाह यही समर्पण होना चाहिये।
हों समर्पित तो यही बस चाहिए
नयन मूंदू दरस तेरा चाहिए !
अश्रु हों,मुस्कान हो जब भी कभी
तू उपस्थित सबमें,फिर क्या चाहिए..!!
behad khoobsooat kavita ....accha laga padhkar
मैं भ्रमित हूँ,मुझ में या परिवेश में है
मैं हूँ उसके या वो मेरे वेश में है
मन की हर संवेदना है जनित उससे
वो मेरे अनुराग में है , द्वेष में है... waah
खूबसूरत भाव ,बधाई ।
अनुज, देर से आने का दोषी हूँ। इन खूबसूरत पंक्तियों तक पहुँचने से महीना भर वंचित रहा, यही सजा बहुत है।
समर्पण भाव बहुत किस्मत से मिलता है और समर्पित मन वाला और भी बड़ी किस्मत से।
दीपावली की बहुत बहुत शुभ कामनायें।
पञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
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"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"
हैरान हूँ.. संभवतः इष्टा को समर्पित दुर्लभ रचना है ये.
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