मैं अब भी निपट अकेले में
हर रोज ढूंढता हूँ उत्तर
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा
जब हमने चाहा था हर क्षण
एक स्नेहिल मौन से भर जाए
उस चुप की मुस्काती धुन पर
कोई गीत प्रणय का छिड़ जाए
लेकिन अब तो ना जाने क्यों
है चीख भरी सन्नाटों में
जो आलिंगन करने को थे
सिमटे हैं स्वप्न कपाटों में
निज-आहूति से अर्जित था
एक पल में पुण्य वो खो बैठा
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा
विश्वास रचित निज-नौका में
दिग-पाल बने थे संवेदन
हम प्रेम मगन थे विचर रहे
यह जीवन सरिता मनभावन
वो छिद्र कौन सा था जो उसे
शंका-सिंधु में डूबो बैठा
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा
9 comments:
bhaavpur aur kubsurat shabdo se rachi rachna... very nice...
विश्वास रचित निज-नौका में
दिग-पाल बने थे संवेदन
हम प्रेम मगन थे विचर रहे
यह जीवन सरिता मनभावन
bahut badhiyaa
तुम्हारे गीतों में जो प्रवाह होता है न..बस..मन खुश हो जाता है पढकर.
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
मरघट समापन ही नहीं है, नये का उदगम भी है।
मैं अब भी निपट अकेले में
हर रोज ढूंढता हूँ उत्तर
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा
और कई प्रश्नों के उत्तर
ताउम्र हमें खुद ही नहीं मिलते...!!
***punam***
bas yun...hi..
:)
tujhe aur kya bolun....:)
मनभावन सरगम ,हम हुए मगन,सुरभित उपवन,हर्षित गगन ..आपकी नज़्म से
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