
मैं उस रोज
देर शाम
दरिया पे बैठा था ...
लहरों पे चस्पा
तुम्हारा चेहरा
देर तक तकता रहा था मुझको ..
और मेरे अन्दर ही अन्दर
तुम बहती रही थी मीलों ...
किनारों की मिटटी
को घिसती लहरें
शायद
रास्ता बदल रहीं थी दरिया का ....
और मैं भी उसी मिटटी की मानिंद
घुलता जा रहा था तुझमे ...
मेरे कतरे अब तुझमे
मिल चुके हैं ....
और सफ़र करते हैं
अब तेरे संग ही ..
तुम्हारी तलहटी में
कहीं अन्दर ..
चाहे तुम जितना भी
रास्ता बदल लो ....
जब किसी समंदर में
मिलने से पहले
तुम मुझको डाल दोगी
किसी अपने ही साहिल पर
फिर मैं जन्म दूंगा
न जाने कितने दरख्तों को .
और तुम्हारी खुदाई
का कुछ हिस्सा लेकर
खुदा सा हो जाऊंगा
मैं भी .