Saturday, October 9, 2010

सुनो न जानाँ ....


सुनो न जानाँ ....
गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....

दिल की हर धड़कन से फिर
एक तान सुरीली आती थी ...
ये पुरवाई धीमी धीमी
मद्धम से साज बजाती थी ...

और वक़्त के हाथों की
तबले पर संगत होती थी ...
शरमाये इस मौसम की
फिर शफक सी रंगत होती थी ...

इन साँसों के अवरोहों में
कई राग पुराने जगते थे ....
और रात की आँखों में
कुछ ख्वाब सुहाने पकते थे ...

पर देखो न ये साज यूँही ..
बरसों से रूठे बैठे हैं ...
ये लफ्ज़ मेरे , अब तेरे बिन
सरगम से छूटे बैठे हैं ...

तुम आओ न और रख लो इन्हें
अपने होठों की पंखुरी पर
की गीत मेरे फिर राधा से
थिरकें कान्हा की बांसुरी पर ...

फिर दे दो इन्हें परवाज़ वही
ये पाँव फलक पर रखते थे ...
सुनो न जानाँ ....गीत ये मेरे
जब तेरे होठों को चखते थे .....

8 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत एहसास

दिपाली "आब" said...

sweet

संजय भास्‍कर said...

बेहतरीन रचना। नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकारें।
शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।

Anonymous said...

very lyrical....bohot sundar hai dost....lovey dovey si, hihi....rock on buds

monali said...

Musical poem...loved it... :)

gyaneshwaari singh said...

पर देखो न ये साज यूँही ..
बरसों से रूठे बैठे हैं ...
ये लफ्ज़ मेरे , अब तेरे बिन
सरगम से छूटे बैठे हैं ...

bhaut khubsurat se ahsaas bahre shabd hai apke..

विजय तिवारी " किसलय " said...

खूबसूरत रचना।

इन साँसों के अवरोहों में
कई राग पुराने जगते थे ....
और रात की आँखों में
कुछ ख्वाब सुहाने पकते थे ...

Ravi Shankar said...

आप सब सुधी पाठकों का आभारी हूँ! आपका स्नेह कलम को हौसला देता है। इसे बनाये रखियेगा।

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