Tuesday, April 7, 2009

फातिहा




अभी भी याद हैं तुमको ,
जो तुमने की थी मुझे
ताकीद कभी ,
कि
"तुम्हारे नज्मों में कभी
मैं न रहूँ "
जाने कौन सा डर था तुमको ......

तो आ कर देख लो हमदम ...
मैं उस ताकीद को आज भी
दिल -ओ -जान से मानता हूँ ...
मेरी नज्मों में कहीं भी
तुम नहीं हो .....

मगर ,
वो नज्में ही अब
नज्में कहाँ हैं ...
न उनमे एहसास हैं कोई
न कोई जान बाकी हैं ...
वो बस एक फातिहा सी हैं ..
मैं जिनको पढता रहता हूँ ..
अपने रिश्ते कि मैय्यत पर ...

मैं तेरे बिन
बेमकसद ही स्याही घिस रहा हूँ
मैं आज कल
बस मुर्दा नज्में लिख रहा हूँ .
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